बाळू रै समंदर

नखलिस्तान ज्यूं

जगचावी स्वर्णनगरी

धोरां री गोद में

बोलता भाठा है

म्हारो जैसलमेर।

धोरां रै अंग-अंग

कुदरत रा है

आडा-अंवळा

गोदना दोरा

देख-देख कळपै

म्हरो जैसलमेर।

पाणी-विहूणी धरती

पण ‘पाणीदार’ मिनख

भुई में जल ऊंडो

तो मिनख पण ऊंडा

उथळो नीं, गैरो है

म्हारो जैसलमेर।

अंधड़ निरदयी

ताणै है खंख आळो

बडो तंबू काळो-पीळो

लोकजीवण रै ऊपरै,

धूड़ खावै, धूड़ पीवै

म्हारो जैसलमेर।

धोरां रा राग-रंग

झमाझम नाच-खेलां री

गीतां में तो बसै है

मीठी राग हिवड़ै री

भाव झरै गीला नैण

म्हारो जैसलमेर।

बेरंगी धरती में

सिरधा रा रंग रंग,

पावन धाम जनास्था रो

भगति-धारा धरमां री

‘सम भाव’ रो विस्वास

म्हारो जैसलमेर।

पीड़ मरु-मिनख री

गैली ज्यूं खदका करै,

दिन तो लुकतो फिरै

बधतो रात रो डील,

आस दिवलो संजोगै

म्हारो जैसलमेर।

मिनखपणै री आस

म्हारो जैसलमेर,

विकास रो विस्वास।

म्हारो जैसलमेर।

कलम रो ईमान

म्हारो जैसलमेर।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : पुरुषोत्तम छंगाणी ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य-संस्कृति पीठ
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