गांवां री चोपाल’र

शहर रा चौराया पर

भेला हो’र लोग बतलावै

माथा मोल दे’र

देश री आजादी लेबा, अर

उणरी रक्षा करबा हालां रा

मनसूबा ही उजड़ग्या।

क्यूंक इंसान तो आज भी

धर्म री दीवारां,

मजहबां रा कठघरां,

अर भांत भांत री जातां रा सीखचां में

कैद होय'र

नफरत रा बायरा में

घुटी घुटी सांसा लेर बेबसरी

जिन्दगी जी रियो है।

आपणां ही हाथां सूं

जहर पी रियो है।

पण कुण रोके उणनै

टोकै कुण नै?

अब तो असी दीखै कि

सारा देश हाला ही

यां पिंजरा मैं कैद होबा नै ही

या आजादी लीनी है।

स्रोत
  • पोथी : मोती-मणिया ,
  • सिरजक : रामसहाय विजयवर्गीय ,
  • संपादक : कृष्ण बिहारी सहल ,
  • प्रकाशक : चिन्मय प्रकाशन
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