जग रूस्यां म्हैं, धारूं कोनीं।

पण तूं रूस्यां, कर्म-री-बात है॥

जैठ-आषाढां री, तपती लूवां।

चोटी सूं एडी तांई, पाणी चूवां॥

हाड-मांस, बांठा-फोगां लगावां।

नित नुवाँ गीतड़ला, हियै बिलमावाँ॥

सूखै-खेतां, बुजै-बुजै, पाणी री प्यास।

घणघोर घटावां छावै जद बरसणरी आस॥

सावण-भादौ, मोत्यां ज्यों बरस्यो।

सुगन मनावतां बाळदियै रै, हळ जोय्यो॥

हंस हंस खेतड़ला, सामै आवण लाग्या।

टाबरियां काचर-बोर-मतीरा, खावण लाग्या॥

स्रोत
  • पोथी : बदळाव ,
  • सिरजक : मईनुदीन कोरो या मईनुदीन कोहरी ,
  • संपादक : सूर्यशंकर पारीक ,
  • प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर
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