तरेड़ आयोड़ै

म्हारै हिवड़ै मांय

कितरा-कितरा

सिणगार रा सुपनां

रूळग्या!

खिंडग्या कितरा

सीप रा मोतीड़ा!

कितरी बार सजी

अर कितरी बार बिगड़ी...

पलकां म्हारी

आभै सूं कतरी बार

नाखीजगी

धरती माथै!

माण-गुमान री

चावना सूं

काळजो बिंधीजग्यो...

चाऊं घणो सोग करूं

बसड़का फाड’र रोऊं

पण देखूं जद आंगणै कानी

तद धीजो देवै भींतां-

''रो मती भायली!

मांयली बात मांयनै राख

कर दै छिमा बगत नै

कारी लगा’र तरेड़ां नै

आगै री सुधार।''

स्रोत
  • सिरजक : कृष्णा आचार्य ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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