कागज आसमान रै ऊपर

अेक बाळक री भांत

आपरै पगां पर

हाथ में सबद लियां

सून्य नैं तोड़ती

ऊभी है कविता।

चालवा खातर उतावळी है वा

देख रैयी है आखो विस्तार

आठूं आसमान सै

अग्नि मिळे पुरोहित

इळा सरस्वती मही

मरु विस्तार नैं देख

बोलै है वा-

अहमिंद्रो मरुत्सखा...

कवितावां रिचावां रै उनमान बोलै।

धरती पर गिगन विस्तार में

विश्व पटल पर

कविता रिदम है

राग है

रिचा गान है

साम है।

मिंतर राज!

कविता रचो

कविता-काळ मत ना रचो!

रचना-काळ लेय

कविता धरती रै गळै मांय भरदयो

ताकि वा खोवै नीं

सहस्र शताब्दियां रै हाथां

जीवंत रैवै

धरती पर्यंत।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : बी. एल. माली ‘अशांत’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य-संस्कृति पीठ
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