सोचूं

कै चितारूं म्हारी मनगत

कविता रै खोळियै

कै उगेरूं कोई गीत

सबदां रै तानपुरै

पण किण विध परकासूं

म्हारो काळजो

हरख लिखू

तो आंख्यां साम्हीं पसर जावै

अणथाग अंधारो,

सपनां नैं बतळाऊं

तो रोवै आतमा

मंगसा पडै आखर

हियै रै हबोळां...

आस रो विस्वास रचतां

पीड़ रचूं

तो सबद फोर लेवै पूठ

चिरळाटी मार,

सांपरतै आय ऊभा होवै

कळीज्यो. काळजै रा मरसिया....

रंग-जात रै संचै ढळिया

रुझियोडै-बचियोडै मिनख नैं बिड़दाऊं

तो छेवट किण ढब?

उफणती छातियां में

बसबसीजती रूह

समाजू रीतां

अर संस्कारां रो

भारियो ऊंच्यां,

आयठण हुवती जूण

खदबदै चेतना री चौघट,

तद किण ढाळे उगेरूं राग

कै रचूं कविता?

अंधारै री उधारी चुकावतो

मिनखपणो

जद तांई नी पूगैला

आस-किरण उण पाणी चूंवतै गुंभारियै ताई

तद तांई

नीं रचीजैली सांच री आंच

नीं उगेरीजैली

कोई मनभावण राग!

स्रोत
  • पोथी : अंधारै री उधारी अर रीसाणो चांद ,
  • सिरजक : मोनिका गौड़ ,
  • प्रकाशक : विकास प्रकाशन
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