आपडु ड़ील अवेरि ने,कारे काम थाय;

धन ना ढ़गला जंय खुटी,बैठे बैठे खाय।

बैठे बैठे खाय, अगा ड़ी वदे कारें;

आवेगा धन हाथ ,पसीनो टपके ज़ारें।

कहे 'विजय' कविराय, खाय बैठे बापड़ु;

हमझो म्हारी वात,वगाड़ो नाम आपड़ु॥

स्रोत
  • सिरजक : विजय गिरि गोस्वामी 'काव्यदीप' ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी