कांटा कंकर भळसणीं मं नहीं समझ्या,
नहीं समझ्या खील-कांच-कादा मं।
छांवळी सूं आगै मन कै आगै-आगै भाग्या-
नहीं समझ्या री भोळा-पांखी नादां मं॥
नहीं करी परवाह पण यानै,यांकै अगल्या-बगल्या की।
सुरत संभाळी जद सूं गाथा पगल्या की।

बाळपणां मं रूई प्हल-सा जामण की गोदी मं।
फूल-बतासा की नांईं समझ्या छा दादा-दादी नै।
पग ले ल्या तो उछब मंड्यो घर-भर मं ठाकुर जी सो।
मंदरा-मंदरा चालण लाग्या मंदरसा की आडी नै।
पाछा मुड़ न झांक्या बातां रहगी चड़ी-चुड़गल्या की।
सुरत संभाळी जद सूं गाथा...

तुळसी जी का पाना पै जद स्याम चतार् या राधा नै।
सांसां मं बासन्दर घुळगी हळदी-महन्दी हाथां मं।
उघड़्यो पूरो-पूरो पग जद परवण-फूली चौमेर् यां।
सुरज-चांद जस्या पगल्या न समझ्या री दन-रातां मं।
बा'र बण'र रहगी ब्यावां नूई-नरम पगतळ्यां की।
सुरत संभाळी जद सूं गाथा...

स्रोत
  • सिरजक : विष्णु विश्वास ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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