तपै भूम अम्मर हुय ताता, मुरझाई भगती पितु-माता।

वागी झाट पिछम दिस वाता, वंक हुवो सब देस विधाता॥

तर धर सूका नदी तड़ागा, लाज धर्म विद्या मग लागा।

आरज हंसा उडगा आगा, कपटी दादर रहगा कागा॥

सीळ संतोष शूरता सारा, तूटण लगा दिवस में तारा॥

खूटा नीर निवाणां खारा, चोपायां घर मिळै चारा॥

भूमि मांझ धसगो जस भोगी, साच सुहस्ती ससके सोगी।

दान ऊंट रे लागी दोगी, जांण अजांण सोइ थाको जोगी॥

जाचक हिरण तिसाया जावै, पुन्न नीर सुपनें नहिं पावै।

धर जिग्यासू दस दिस धावै, मृगतिसणां गुरु लख मुरझावै॥

सत-संगत सुर बाग सुकायो, मिळे कहूं बळियो मुरझायो।

ठंडो जळ नहिं ठरे ठरायो, भूल ज्ञान सुण्यो मन भायो॥

आई उमड़ अविद्या आंधी, च्यार वर्ण चडगी चखचांधी।

विरचा धजा तूटगी बांधी, सदाचार री सँधे सांधी॥

कविजन वृन्द कंवळ कुमळाया, गीत कुकवि जणु स्याळां गाया।

मूरख भगतां सोर मचाया, काळी रात जरख कुरळाया॥

ऊपर ऊनाळो आयो, दीन जनां दोरो दरसायो।

पाणी ज्ञान की नहिं पायो, कूके लोक हुवो अति कायो॥

स्रोत
  • पोथी : प्राचीन राजस्थानी काव्य ,
  • सिरजक : ऊमरदान ,
  • संपादक : मनोहर शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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