मा कैवै-

'घणो अपसुगणी हुवै

घर में थोर पाळणो!'

परम्परावां'र आधुनिकता रो

वरणसंकर हूँ

कैक्टस खनैं खड़्यो सोचूं-

कै 'इणनै फेंकूं कै नईं ?'

इतरै में

कैक्टस तानो देवतो मुळक'र

जुगां सूं सिंयोड़ी जुबान खोली-

'मिनख..!

म्हारा कांटा

इत्ता जैरीला कोनी,

जिता थांरी

रूढ़्यां'र परम्परावां रा है!

म्हारा पंजा

इत्ता जान लेवणिया तो कोनी

जित्ता थांरां अनुसंधाणा रा है...

हूँ इत्तौ

सरबनासी तो कोनी

जित्तो थारो सभ्य जुग रो जुद्ध!

म्हारै हिरदै में

घिरणा-बैर-हिंसा रो

बो जैर तो को बेवै नीं

जिको

हर समै थारी रगां में

बेवै रगत बण'र..!'

मन्है लाग्यो

चांद-मंगळ री ऊँचायां पर

उडणवाळो

पताळ री गैरायां

नापणवाळो

इत्ता धरमां

इत्ता सिद्धान्तां

इत्ता अनुसंधानां'र

इत्ती सदियां रै

पगोथियां सूं

सभ्यता रै सिखर पर

चढियोड़ो मिनख

कांटावाळै कैक्टस सामीं

बस बावनियो है।

स्रोत
  • पोथी : कवि रै हाथां चुनियोड़ी ,
  • सिरजक : लक्ष्मीनारायण रंगा
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