जसोधरा!

अंतस रै आंगणै

अधरात

अेककटक

किणनै उडीकै?

उडीक रै'ई व्हैती व्हैला

कोई मांठ

कोई सींव

जठै

सुपनौ अर साच

अेक दूजा सूं न्यारा लागै।

जसोधरा!

थांरौ 'र उणरौ

मारग न्यारौ

बावळी!

थूं बांधै-

जलम-जलम रा बंधण में

वौ सोधै-

जलम-जलम सूं

अेक अदीठ

मुगती रौ मारग

थूं, अजै क्यूं उडीकै?

जसोधरा!

थांरी ऊजळी दीठ में

जुग रौ दरसाव

प्रीत रौ पसराव

पण

प्रीत में प्रीत कठै?

अंजाण मत बण

जाणै तो थूं है-

विजोग रै अंतस में बसै

असल सुरंगी प्रीत

मुगती रौ मारग।

जसोधरा!

जीवण रौ साच

जीवण सूं न्यारौ क्यूं?

हियै पीव रौ उणियारौ

पण विजोगण जमारौ?

साचाणी-

इतौ सोरौ कठै?

संसार में बणणौ-

बुद्ध!

पैलां जीतणौ पड़ै-

खुद सूं खुद रौ जुद्ध।

स्रोत
  • सिरजक : गजेसिंह राजपुरोहित ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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