सगळा केवै चिड़कली होवैं छोरियां

उडारी मारनै पूगज्यै दूजै घर

पूगज्यै का पूगा दी जावै?

बात समझ नीं आवै

किंया उड़ सकै बापड़ी

क्यूंकै पांख्या नीं देखी म्है कदै

आं चिड़कल्यां रै।

होवै तो भी बंध’र रैवे

बाप री पगड़ी, भाईया’र मानखै

अर इण समाज री

बूढी सोच रे पल्लै साथै।

बैठी-बैठी नै घणो इज दिखै है

खुलो आभौ

पण उड़ नीं सकै

पांख्यां सागै इतौं भार लैयनै

फेर अेक दिन आवै

अे सगळा रळ’र

अर दूसरे आळणै में छोड़ आवै

कैवे के च्यार दिनां री इज ही

अब उडारी भरगी चिड़कली

पण! देखी है म्हैं

पगां जांवती चिड़कल्यां

पांख होवंता थकां भी

उडारी भूलेड़ी चिड़कल्यां

सोने रै पिंजरे री चिड़कल्यां।

स्रोत
  • पोथी : साहित्य बीकानेर ,
  • सिरजक : सपना वर्मा ,
  • संपादक : देवीलाल महिया ,
  • प्रकाशक : महाप्राण प्रकाशन, बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम
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