होया करै जेड़ो

है दिन

चोगड़दै पण भंवै

साव अंधारो

सुरजी नै चिड़ांवतों!

कुण देखै सूई

जठै लुकग्या हाथ

दिखै नीं

खुद रै पगां रो कादो

भोत अंधारो है

थकां सुरजी!

है तो सरी सुरजी

आभै में पकायत

है कठै पण ठाह नीं

फिरग्या आडा

जळबायरा बादळिया!

इयां तो ढबै नीं सुरजी

निकळसी एक दिन

बादळियां नै फटकार

पळपळांवतो

आभै रै सूंवै बिचाळै!

स्रोत
  • पोथी : भोत अंधारो है ,
  • सिरजक : ओम पुरोहित ‘कागद’ ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम