हूं म्हारै

घर’ री वरडी माथै

बैठौ

हरमेशा ही,

सोच्या करूं हूं

कै दिन निकलतां ही

एक भीड़ रो रैलो

भागतौ-दौड़तो

खिरतो-पितलकतो

किण ठौड़ जाय’र

ठैर जावै है!

अर दिन आथूंवतां ही

पाछौ आपरी ठौड़ माथै

दौडतो-भागतो

उतरयोड़ो मूंडौ लियां

चाल्यौ आवै है,

समझ नी पावां

कि हरमेश अे

किण’री तलाश मांय

घरा’ सूं निकल नै

कांई खरीदन सारुं

जावै है,

अर कांई लेर आवै हैं

म्हानै तो

आई’ज लागै

के हर रोज मानखौ

आपरौ ईमान बेच’र

रोटी खरीद लावै है!

अर खाय नै सो जावै है॥

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत अक्टूबर 1981 ,
  • सिरजक : बाबूलाल संखलेचा ,
  • संपादक : चन्द्रदान चारण ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृत अकादमी, बीकानेर
जुड़्योड़ा विसै