ढळतै दिन

सूरज री किरणां पड़ै

पळपळाट करै सुरजी

पीळास बधै।

उपरां कर उडती

पांखीड़ां री डार...

तणकावै भावां रा तार

मन आकळ-बाकळ होय'र

कैदीड़ै पांखी ज्यूं फड़फड़ावै।

अेक सांस उड'र

बढ जावणो चावै...

धंवर-सो धुंधळास

छायोड़ो दीखै च्यारूंमेर

पण निजरां री टेर

तीखै तीरां ज्यूं गैरी बैठणी चावै

वीं माटी रा गूंगा सबद

बांचणा चावै।

वो म्हांनैं बुलावतो लखावै

उण कनै है कोई दरसण

वो बतावणो चावै

हो सकै कोई गूढ सवाल

वो म्हां सूं पूछणो चावै।

म्हैं सोचूं...

कांई-कांई मिल सकै है बठै!

उतार-चढाव

रीत-गीत

जीवण-मरण

स्सो कीं

....कै की नीं!

म्हैं सोचूं, पण साच जाणूं नीं।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : राजू सारसर 'राज' ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham