पाणी री ना'नी-सी बूंद

संकट ही संकट

आफत्त ही आफत

मांय जीवै।

मांटी रा कण

बी नै सोसण ताणी उमडै,

तो

पून रो झोको

बी नै उडाणे ताणी मचलै

सूरज री तपती किरण

बीं नै बाळण ताणी दोडै

तो

पंछी री तिसाई चूंच

बी नै पीवण ताणी उकळे

जठी नै देखो बठी नै ही

मौत मंडरावै।

अस्तित्व री राड़ है।

बून्द नै खुद रो अस्तित्व

बचावण ताणी

बी नै बावनी सूं विराट

बणनो पड़सी।

सूंसावतो समन्दर बणनो पड़सी

तद कोई क्यूं' बी नीं बिगाड़

सकै बूंद रो।

आँधी-तूफान

कड़कड़ाती बिजळी

तपतो सूरज, पाँख-पखेरू

ढाँडा-सांसर

कोई अब उणरै

अस्तित्व नै कोनी

मिटा सके।

क्यूं कै

बूंद अब सागर

बणगी।

इणी भाँत

मिनख नै भी

मैं अर मेरो भाव

छोड’र

म्है अर म्हारो

भाव जगाणो पड़सी

जणा ही बो

देश अर काळ री

सीवा नै तोड़’र

अजर-अमर बणैलो

आपरै अस्तित्व नै

उजागर कर सकैलो

बचा सकैलो

अपणै आपनै।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : उदयवीर शर्मा ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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