एक
पौसाळ जाती बेटी का हाथाँ में
नत के सूँपूँ छूँ एक गुलाब
अर अश्याँ ही सिखाबो चाहूँ छूँ
के- कश्याँ मुळक्यो जा सकै छै
काँटां के बीचै र्है’र भी
दो
मनखपणां की आँख्यां में
उडीक छै थारी
थरता रख
ढब जा धरणी पे हरमेस बेई
के थारा रंग को पोमचो ओढ़
जुगाँ तांई मुळकबो चाह्वै छै धरणी
रूतराज बसंत
तू जूण ईं पतियारो द्ये
तो सुख का डीळ पे रचै हळद
तू छू द्ये तो
मेंहदी की मनवारां अम्मर हो ज्यावै
तीन
बीह सूँ पैळा होग्या सगरा उणग्यारा
पानखर का सताया छै बसंत
हवळै हवळै आ
आ आछपगाँ जश्याँ मोट्यार
चेत में आवै छै कोई को धैंन
अर पसर’र बैठ ज्या छै
सगळी ठाम
जाणै
सूरज का घर में
पसर’र बैठगी होवै तावड़ा की हूँस।
अश्यो भी कांई डमस रे रूतराज होबा को
के कोय को भी दरद
थारी आँख्यां संदवाई न्हँ करे
तू बसंत छै रे
मनख थोड़े ही छै
के राज की पाग बँधतां ही
माथो कटवा द्ये मून मनवाराँ को।
चार
थारा होबा सूँ
सौरम जाग ज्या छै साँसां में
थारी दीठ सूँ सात रंग का हो ज्या छै सुपनां
तू चुप र्है तो मुळकै छै मनवाराँ
तू बोल द्ये तो कांमण जाग ज्यावै छै गीतां में
तू म्हारो हेत छै
के बसंत की रूत छै जिनगाणी में?
पाँच
बसंत कांई?
जश्याँ चळू में ले’र पील्यो इमरत
के माघ की पून्यँ का चाँद की साख में
सापड़ ल्या होवै पुन्न
गंगा की धार में
बसंत छै
तो सूरज को आँख्यां तरेरबो भी
सुहावै छै म्हैड़ला में
अर धूजणी छूटै जे रात का डीळ पे
तो नुआ चतराम मँढ ज्या छै
रात का डीळ पे
बसंत आ जावै छै जद उमर का आँगणां में
तो टीपणा कसमसाबा लाग ज्यावै छै
महूरत चीतबा बेई
पण
प्रेम को भी कोय महूरत होवै छै कांई?