घर का भांडा
आपणा पुरखां की सैंलाणी
पण दा'जी
जद सू सिधारग्या परलोक
तद सूं ई
तीन पाव दूध समेट लेबा वाळी
कांसा को गलास पड़यौ छै
घर पछैडी का आळयां में!
बरतन-
कांसी की थाळी,
पीतळ की चर् यां
ज्याकै बिना न्हं सधी कदी
कन्यादान की रीकांण...
पण आज
चूल्हा-खूण्यां सूं लै‘र परैंडी तांई
पसरी पड़ी छै स्टील...
म्हारी बाई
अेक बगत में ओसणै छी
बीस मनख्यां को चून
पीतळ की लूंठी परात में!
पण अब
जस्यां-जस्यां आंगणा में
उभी होती जा री छै भीत्यां
उस्यां-उस्यां
छोटा सूं छोटा
होता जा रहया छै
घर का बरतन।