बणजारण बादळी,

थारो कांई अे विस्वास।

नरम-सांवली

थारो कांई अे विस्वास॥

पांख-पखेरू आस लगाई

मोर कर्‌‌यौ चित्तकार

लता-बेलउयां सूकी सारी

मांगी सांस उधार

ताल-तळैया प्यासा रैग्या

बरसी बन में जाय ‌अे

घर-घाट बदळणी

थारो कांई अे विस्वास॥

मैं तो समझी जा बरसैली

परदेसां में सांस

लेज्यसी संदेसौ म्हारौ

“सांस हुई है फांस”

बाट देखतां रैगी आंख्यां

कद आवोला नाथ

टीला चढ़तां फूट्या गोडा

थां बिन हुई अनाथ

अठै जानी बठै बरसी

बरसी गढ़ में जाय अे

छळ-छंद-छिट्कणी

थारो कांई अे विस्वास।

भोळां नै ठगणौ चोखो कोनी

भोळां-रा भगवान

बिरणी नै ठगणौं चोखो कोनी

बळजासी अभिमान

जारै दूखै, बारै दूखणा

दरद, दंस, ऊफाण

प्रीत करै जो पंथ बतावै

किण पगल्याँ में प्राण

झिरमिर करती कठै बरसी

बरसी मठ में जाय अे

मन-मौज-मटकणी

थारो कांई अे विस्वास।

बणजारण-बादळी थारो कांई अे विस्वास॥

स्रोत
  • पोथी : रेत है रतनाळी अे ,
  • सिरजक : पूजाश्री ,
  • प्रकाशक : के. के. भवण मुम्बई ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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