म्हनै लागै—

म्हारा सूं

आत्मा निकळ'र

कठैइ चलीगी,

म्हारौ बदन

एक चालती फिरती लाश है,

जद्यां ही तो

म्हारै चौफेर

भाँत भाँत रा गिद्ध

उड़ै

मंडरावै

अर रोम-रोम नै नोचै है,

म्हारा में बैठो

कबीर अर नानक सोचै है,

म्हारा करतब नै

मिनखाचार री ताकड़ी में तोलै है,

दूर

मंगरा में बण्या

जुगांतरी मंदर सूं उठती

जै-जैकार रे पछै

गूंजती आवाज रे लार बोलै है,

अठै

थूँ ही'ज लाश कोनी

लाशां रो पूरो मंगरो है

काँकड़ है,

अठारी धरती राँकड़ है,

जणी में सगळा ही ठूंठ है,

थारा अन्तस नै पूछ

या बात कई झूठ है?

इयां

सरनाटा नै चीरती

गूंज नै सुण;र

म्हनै

एक बार फेर लागे

म्हूँ भी तो

म्हारा बदन ने

हाथ

पाँव

उदर.....

अर कतरा ही टुकड़ों में बांट'र

अस्थिपंजर रा

अणी पिंजरा में

आत्मा ने तलाश रियो हूँ!

कई करै म्हारो कबीर

कई करै म्हारो नानक

जद

बदली बगत रे लार

स्रोत
  • पोथी : पसरती पगडंड्यां ,
  • सिरजक : शिव 'मृदुल' ,
  • प्रकाशक : चयन प्रकाशन, बीकानेर
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