अेक 
गांव!

गांव मांय हुवै लोग,
लोग सिरजै मकान 
कच्चा-पक्का!
राखै बारणा 
जका खुलै गळी धकीनै 
अर 
गळी हुयनै आपरी साधणा भेळी 
रमै गुवाड़।
 
गुवाड़ मांय तो बसै
अेक दूजै जगती, 
उणी जगती रै ओळै-दोळै
तै हो म्हारो रैठाण। 
 
मां!
अेक दिन थूं  
उणी जगती सूं 
पकड़ बांवड़ो 
खींचनै ल्या छोड्यो हो म्हनैं 
उतरादै बारणै वाळी साळ मांय 
अर बरड़ायी ही थूं 
कै जकी साळ मांय थूं जाम्यो 
उणीज मांय उतार लेतूं खाल।

थारी रीस वाजिब ही मां!
क्यूं कै-
म्हैं नीं मान्यो थारो कैवणो..! 
थूं कैयो हो कै- 
गाय दूहती बगत 
आगै खड्यो होय'र 
फेर गाय रै सींगां आंगळी, 
कर हेत री खाज 
बिलमसी गाय अर पावससी।

थूं स्हारै सारू 
खींच ल्यायी ही म्हनैं
पण,
ओळमो नीं देवू मां थनै 
क्यूं कै-
थूं बतायो हो उण दिन 
ओ कै जीवण-जंतर
जकै पाण जीवूं म्हैं आज।

उणी जलम-थळी साळ मांय 
बसै है म्हारा प्राण! 
बदळग्यो जुग 
बदळग्यो साळ रो रूप 
पण मां... 
थारी फोटू धक्कै आज ई अरपूं माळा 
उणी थळी माथै,
अर करूं उडीक मां 
कै थूं  
निकळ फोटू सूं बारै 
कैयसी-
आज-आज तो कोई बात नीं 
फेरूं राखज्यै ध्यान 
खाल उतारूं दुसमी री, 
थूं रम गुवाड़।
 
अर हां, 
इयां-ई ततातोड़ी नीं देजायी गुवाड़, 
जावती वेळा 
बाल्टी मांय सूं 
भरनै गिलास 
पींवतो जायजै, 
दूध..!


दोय
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मां 
कांई थूं भूलगी..!
उण बात नैं 
जकी बूझी ही म्हैं 
उणी साळ मांय 
सीतळा धोकती बगत।

मांडै ही थूं 
गारै लीप्योड़ी 
सोवणी भींत माथै 
कोरै घडै सारै 
हळदी-घी सूं सीतळा।

पैलपोत मांड्यो हो थूं  
सीतळा रो व्हालो गधो, 
माच्यो हो म्हारै कंवळै काळजै 
घमसाण 
कुण चढसी इण माथै 
किणनै चढासी मां....?

मां 
हळदी सूं म्हारी फोटू मांय 
फगत म्हैं ईज चढ सकूं इण माथै । 
क्यूं कै 
इण नैं बणायो है 
म्हारी मां।

मां 
म्हैं नीं समझ्यो थारी मुळक नैं 
उण बगत 
पण यूं दीन्हो हो म्हनैं भुळाय 
थूं कैयो हो 
आज चढसी सीतळा 
चढसी कालै 
थूं।
स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : दुलाराम सहारण ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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