दीवारी नै दाडै़ एक आदमी

पी पिवड़ावी नै घेरै आव्यो

लड़खड़ातै-लड़खड़ातै

बईरा नै हाको पाड़्यो

नै केवा लाग्यौ....

ऐलै तनै खबर है...

आजै दीवारी है।

हत्ताए गाम मैं ऊजवारू है—

पण

आपड़े घोर मेस कैम अन्दारू है।

परबातै मनै एक बाबो मल्यौ तौ,

नै कई रह्यौ तौ कै—

आजे दीवारी है पण-मारी झौरी खाली है।

वदारे ने पण एक गणमो-खैटलो एक आली दे—

नै दीवारी नै दाडै़ -मारी भूख मटाड़ी दै।

ऐटलै-मुँ बोल्यौ कै हे मावजी महाराज!

तमें नके थो नाराज,

नै हामरो मारी एक वात—

अगर मारै पाय खैटलौ वेतौ

तो मुँ दारू कैम पीतौ

नै जो हुकूमत वैती तौ तनै भूखौ जावा दे तौ

पण-हूँ करूं-आजे दीवारी है तोय-बाप गांटतौ नथी

बईरू मारु केवु मानतु नती

लोग दीवारी नै दाड़ै-दीवा बारी रह्या हैं।

पण मुं तो-मारु कारजु बारी रह्यौ हूँ।

ऐटले मारी बात माने तौ-जई वाटे आव्यो हैं—

एणी वाटे पासो नाईजा नै

भूको पड़्यौ रै नै दीवारी नो आनन्द ले—

बाबो ते नाई ग्यो पण मुँ विसार मँए पड़ी ग्यौ

नै विसार करते-करते-अड्डा माते पूगी ग्यौ

नै वीश रुपय नौ दारू फेर पी ग्यौ

ने तारी परबात नी वात भूली नै

गऊँ, सोका नै गोर लावबा नो ख्यालस नै आव्यो

नै दीवारी दाढ़े दारू मनै पी ग्यो।

स्रोत
  • पोथी : वागड़ अंचल री ,
  • सिरजक : अरविन्द पण्ड्या ,
  • संपादक : ज्योतिपुंज ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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