साहित्य का बांध घूघरा, यो मन नाचै छन छन छन

कठी पड़ैगी रात रूपाळी कठी उगैगो म्हाँने दन?

म्हाँ बणज्यारा साहित की बाळद लाद्याँ डोलाँ

सिरजण खरो कराँ अर सब सूँ खरी खरी बोलाँ

धरमराज बण थाकड़ी में पूरो पूरो तोलाँ।

जिन्दगी भर उठा पटक कर विष में अमरत घोळां

उठी लहर आसा की हिवड़े न्हँ होबाद्या उन्हें दमन॥

जीं गडार पे तुळसी मीरा सूर कबीर खड्या छा

लिखग्या राज जिन्दगी को वै ढाई आँखर पढ्या छा

दुनिया वाँकी सगी न्हँ होई पण कुण क्हदै खुड्या छा

सिरजण न्हँ छोड्यो भाटा सूँ भड़भट खार मर्‌या छा

करी साधना सरस्वती की कर्‌यो ब्रह्म ईं रोज मनन॥

कराँ जगेरो रात रात म्हाँ भरी दफैर्‌यां सोल्याँ

ब्रह्म रूप दो आँखर में रम एक मेक म्हाँ होल्याँ

गंग विचाराँ की उमड़ै छै, जीं में नतके तरल्याँ

इमरत की धारा सूं नत के आपण कुरळा करल्याँ

अलंकार उपमा का मोती चुग चुग हंसो करे रमण॥

स्रोत
  • पोथी : राजस्थानी गंगा (हाड़ौती विशेषांक) जनवरी–दिसम्बर ,
  • सिरजक : देवकी दर्पण ‘रसराज’ ,
  • संपादक : डी.आर. लील ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ज्ञानपीठ संस्थान
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