धरती की दूब-सरग चल’गी

बंधी-बाँस प-एक दाँतळी

चाल रही

सहस बाहु की भुजा सरीखा

कट-कट ‘क पड़ रह्या

फणग्या खजूर

ऊबा बिरछ कर’ बीनती मेघाँ की

बावड़ो! अब तो बावड़ो

उतरी ऊण्डा कुआ मं

एक बाल्टी फूटी

भड़भड़ाती-आतमा-जाण

पींदा सूँ टकराई

हड़-हड़ करती आई

कंकाळाँ की

गूँजी पाणी की खाली सुरंग मं

बावड़ो!

पाछी बावड़ो

हाँको मत करो-सोबा द्यो

अब कोई

पाणी पाताळ चलीग्यो।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली- राजस्थानी भासा मांय जन चेतना री तिमाही ,
  • सिरजक : अम्बिका दत्त ,
  • संपादक : श्याम महर्षि