अब की बरस जाड़ा मं
सोच्यो तो यूं थो
खूब ताबड़ो खावेंगा
शीत सूं ठिठुरता हाथ
थांका हाथां मं सौंप सैर करेगां
मस्त बयारां मं मौज का गीत माण्डेंगां
अर अब तो
मन की आखी बात पूरी होगी
खूब तावड़ो खायो भीड़ भरया रास्ता पे
हाथ भी सोंप्या जान पहचान करवा के लेखे
अनजाण मनख़्यान ने
सैर
हाँ सैर भी घणी करी
ईं दफ़्तर सूं उं दफ्तर की
गीत भी गा ही लिया
दूसरां का ही सही
सब कुछ तो हो ही ग्यो
बस रूप ही तो बदल्यो छै
फेर क्यों
लागे यूँ
एक जाड़ो और गुजर ग्यो
यूँ ही..