केई-केई आदमी डील-डौल अर चैरैं-मैरै इसा चूंखला, सेफांबाई अर सऊर-बारा सा लागै, कै, न तो बांनैं बतळावण रो ही जी करै, अर न जबाब देवण रो ही। कीं ढंग आळो आदमी आ ही सोचै कै, बै दो हाथ आंतरै कर ही निकळै तो आछो पण आं सागै ब्योहार नहीं पड़ै जित्तै ही समझो। ब्योहार पड़्यां बै ही सेफांबाई आछै सूं आछै आदमी रै काळजै में इसो घर करे, जिसो पड़्या लिख्या ठगोरा, फैसनेबल अर फन्नैखां फूठरमल ही को कर सकै नीं। ईं रो मूळ कारण ओ ही हुवै कै, बै बारै सूं जित्ता ही फीका अर बदरंग दीखै मांय सूं बित्ताही घणां गैरा अर छबिवंत हुवै। मांयलै धरातळ रो उपजाऊपण हर आदमी री प्रकृति नैं रुचै ओ सिस्टी रो लालचुट अर लोहलीक नेम है, भलां ही कोई किरोड़पति हुवै चावै कोई कूंजड़ो। हां, तो म्हारो बो मुलाकाती बिसायती हो।
जेठ रो ही कोई दिन हो। दोपारै री टैम, पून बन्द अर लाय बरसै। मैं म्हारै कमरियै में खजूर री एक बोदी सी पंखड़ी लियां, होळै होळै एक किताबड़ी कुचरै हो। पून लेवतां-लेवतां हाथ थक जावतो, तो पंखो एकर परियां मेल देवतो, फेर जिंयां ही कीं जी अमूजतो, तो, सागी ही हाथ भळे पाछी पंखी भुंवांवण लागतो। एकर आंख कीं लागू ही, का अचाणच को ही घर रै बिल्कुल आसै-पासै ही सुणीज्यो, ‘कांच के भांड गोटा किनारी, डोरा’, अर और कुण जाणै कांईं-कांईं नांव लिया बण, को ध्यान दियो नीं, मैं म्हारै बोपार में भळे लागग्यो, पण दो मिंट ही को हुया हुसी नीं, साढ़ी तीन हाथ रो बो खुद ही आ’र सामों खड़्यो हुग्यो। लकड़ी री पेटी ही खूमचैनुमा। गत्ता खड़्या कर-कर समान सूं भर राखी ही बींनैं। पेटी मैं देखी, पेटी कांईं चालतो-फिरतो एक छोटो-मोटो जनरल स्टोर ही समझो बींनैं। बारणै आगै अूभ’र बोल्यो, “राम-राम बाबू साब।”
“राम राम तो चोखा पण अठै कुण लेसी थारी कनार अर थारा काच कांगसिया? कोई आगलो घर देख,” मैं कैयो।
सैज भाव सूं बो बोल्यो, “हूं थांनैं अै बेचण नैं ही आयो हूं, आ बात थांनैं किंयां आई बाबू? तिस्सो हूं, हूं तो; ईं खातर आयग्यो, थारै नहीं जची तो टाळ सही।”
हूं म्हारै दिस्टीकोण सूं कीं झेंपग्यो, म्हारो सस्तो अन्दाज गळत गयो, ईं खातर। झेंप मिटावतै मैं कैयो, ‘फेर कोई बात नीं, बिसाईं खा, पाणी पी, होळै होळै जाए म्हारै भांऊं”।
बो बोठग्यो। पसीनै सूं तर,। मैली अर चीटो हुयोड़ी मलमल री टोपी, गांधी (टोपी) नहीं गोळ, किनारां पर धोळो कसीदो, कदेई लीं है जद तो रळी आवै इसी हुवैली, पण अबार तो बींरा बोरिया बिक्योड़ा हा। पसीनै सूं भीज्योड़ी।
लठ्ठै रो मैलो सो चोळो, बिसी ही अधरूप सी गिट्टां सूं ऊंची सूथण। पूजा री छावलिया सुपारी सो नाक, ठोडी पर खुरचणो सी उळझ्योड़ी तिल-चावळिया दाड़ी, गालां पर छीदा-छीदा अर ओछा रूंवटा, राखिया कोड्यां सी छोटी-छोटी मटमैली सी आंख्यां, ऊपर-नीचै दो-दो तीन-तीन दांत, बै ही कादै में रोप्योड़ै घोचां सा हालै, पगां में टायरी चप्पल, रंग रो सांवळो, पतळा मुरचा, थाकल अर ओसत आदमी सूं बिलान सवा बिलान ओछो भळे। ओ सरूप अर ओ बेस। डावै पग रै गट्टै रै एक पाटी बांध राखी। मैं पूछ्यो,
“पग रै कांईं हुयो?”
“कुत्ती खायगी बाबू।”
“कद”?
“आज ही।”’
“कठै?”
“बाणियां रै बास में।”
“कांईं लगायो है।”
“मिरचां बांबी है।”
“हिड़कणी तो को ही नीं?”
“ही तों ही कोई नुंबों जमारो मिलसी।”
“अर बो जे ईं सूं ही माड़ो मिल्यो तो?”
“मिलसी तो मिलसी, घाटी काढणी जिकै रो कांईं नां आछोक दो बरस बैगो निकळै तो, डर्यां कांईं हुसी?”
मैं एकर बींरै चैरै कानी सावळ देख्यो। जीवन्त आस्था अर संघर्ष री गैरी लकीरां बींरी चेतना सूं निकळ-निकळ बींरै चैरै पर थिर हुयोड़ी लागी।
लाग्यो, न मरणै में उदासी अर न जीणै में अनास्था। ‘क्यों, किताक बरस आयग्या हुसी?’ मैं पूछ्यो।
“पच्चास सूं एक दो ऊपर।”
“ओ तावड़ो, अर आं बळतै टायरां नैं घींसतां गळ्यां में फिरणो कियां ताबै आवतो हुसी?”
“पेट थोथो है बाबू, तावड़ो देखै न छांयां। तावड़ै-छांयां सूं डर्यां जीवण थोड़ो ही निभै? जीवण तो मोरचो है बाबू, मोरचो; पीठ दिखायां बींसूं पिंड थोड़ो ही छूटै?”
“बात तो ठीक है, भाईड़ा, मंगाऊं पाणी अबै?”
“मरजी है आपरी।”
सात-आठ बरस रो म्हारो छोरो बैठ्यो हो कनैं, बीं कनै, सूं ठंडै पाणी रो लोटो मंगायो। पाणी बण बूक सूं धीरै-धीरै पी लियो। हूं बोल्यो, “थोड़ो रोटी टुकड़ो?”
“बस बाबू साब, मालक थांनैं मोकळो देवै,” कह’र बण आपरै खूमचै सूं आधी एक मुट्ठी मूंगफळियां निकाली अर छोरै नैं दी। मैं मना कियो पण बो को मान्यो नीं, नहीं-नहीं करतां बींरी जेब में घालदी।
“अबार इंयां ही घणी ही लाय पड़ै, अै ओर गरम करसी,” मैं कैंयो।
“बिना सेक्योड़ी है बाबू, अर टाबरां रै दस मूंगफळ्यां रो कठै पतो लगै”?
आप रो खूमचो ऊंचण लाग्यो तो मैं दस पीसा बीं कानी फैंक्या।
“नहीं नहीं बाबू, हूं अठै मूंगफळ्यां बेचण थोड़ो ही आयो हो?”
“नहीं आयो तो, अै किसी थारै खूमचै में नीपजै?”
“घाटो तो मणां रो है, कणां रो थोड़ो ही है बाबू?”
“चोखो नहीं है तो, पीसा लेवै जद तो ठीक है, नहीं तो राख थारी मूंगफळ्यां, “मैं कीं लूखी सी आवाज मे कैयो।
बीं री मुद्रा कीं गैरी अर निजर कोई अर्थ सोधती सी लागी। आधी मिंट ठैर’र बोल्यो “अर हूं आपरो पाणी अठै ही उल्टी करदूं तो फेर? बूढ़ो आदमी हूं, ईं में मनैं बड़ो तकलीफ हुसी, पण, आप नहीं मानस्यो तो करणी ही पड़सी। आप तो अबार रोटी-टुकड़े रो पूछै हा मनैं, खा लेवतो तो पीसा लेवता म्हारै कनैं सूं।”
“तो तूं पाणी रै बदळै मूंगफळियां देवै?”
“बदळै में नहीं बाबूजी, ओ मन रो बौपार है। मन री लालसा पर तो आदमी सै कीं लुंटावै,तो मनैं एक बाळक नैं दो मूंगफळी रो हक ही को है नीं, म्हारै ही एक टाबर है ईं जित्तो ही, हूं ही बाळ बच्चैदार हूं, आदमी खाली रोटी सूं ही को जियै नीं बड़ा मिनखां।”
बो एक मिंट चुप हग्यो, हूं बींरै चैरै सामों इंयां देखै हो जिंयां कोई सीखतड़ टाबर आपरै मास्टर कानी। बो फेर बोल्यो, “बाळक कित्तै कोड सूं जा’र खाथो-खाथो पाणी लायो है, कित्तो धीरै-धीरै एक मन हू’र मनैं पायो है, टोपो ही ईंन्नै-बिन्नै को पड़न दियो नीं, ईं नैं जित्तो हूं समझ्यो हूं, बित्तो आप को समझ्या नीं, बिसायती हुयां ही हूं, माड़ो हुग्यो? आखो संसार ही बिसायती है बाबू।”
“ठीक है भई ठीक,” मैं देख्यो ईंनैं सायत कठै ही चोट लागी है, ईं खातर झींझट में घणों आगी नैं को गयो नीं। बो खूमचो ऊंच’र जावण लाग्यो जद मैं कैयो, “अरै थारो नांव तो बता भागी?”
“सुलतानियो बजूं बाबू।”
“ईन्नैं आवै जद कदेई मिल्या तो कर।”
“आयां जरूर हाजर हुस्यूं बाबू।”
बो गयो परो, पण बीं रा बोल केई म्हारैं मन में ओजूं चक्कर काटै हा। बो खाली काच कांगसिया ही को बेचे हो नीं बीं कनै केई इसी चीजां भी ही जिकां रो मोल सिक्कां में को चूकीजै नीं। आदमी खाली रोटी सूं ही को जियै नीं। बीं नैं हेत, प्यार, अपणायत अर मन री खुसी भी चाईजै अर बींनैं बै नहीं मिलै तो बो सायद जी ही को सकैनीं, ‘आखो संसार ही बिसायती है बाबू’। ठीक ही तो कैयो बण। अमीर अर गरीब जिका ही अठै आयोड़ा है धरती पर बिसायती ही तो है, भार उठायां फिरै, पण भार कम करणो तो माई रो लाल कोई सो ही जाणैं, बाकी सै भार बधावण में लग्योड़ा है, जियां ही जीवण छूट्यो पाछो दूणो-तीणो भार लियां बो ही बिसायतीपणो त्यार। हर आदमी सुलतान है अर भारबधाऊ है विसायती। बडो सुळझ्योड़ो लाग्यो मनैं बो।
मनीनैं में दो तीन बार गांव आवतो अर आवतो जित्ती बार म्हारै सूं एकर मिलर जावतो। हां, हूं घरे नहीं लाध्यो हूं आ बात दूसरी है। आवतो जित्तो बार लेवो भलां ही दो ही गुटका, पण, पाणी पीवतो जरूर। पांच-सात मींट घड़ी प्हैर बैठतो ही। एकर मैं पूछ लियो “सुलतान, मुसलमान है, मांस मूस ही खावतो हैलो।”
“बाबू, मांस म्हारलो रह ज्यासी तो ही घणो ही है, परायो भळे किसो घालूं।” मनैं बीं पर कीं श्रद्धा हुगी अर हेत तो फेर होण रो ही ही। छोरै नैं कैदेई बो दो पीसां रो ढब्बू, कदेई काच री दो च्यार गोळ्यां, और नहीं तो दो पीसां री कोई प्लास्टिक री बीबली ही सही कींन कीं देवतो जरूर। छोरै नैं बींरो कोड लाग्यो तो इसो, कै, बास में जियां ही बीं’री आवाज, ‘काच के भांड ...., सुणीजती, जीमतो-जीमतो बो बिचाळै ही कुरळा कर, बिना कैयां ही लोटो भर त्यार राखतो।
पढ्यो-लिख्यो इत्तो ही कै हिन्दी रा आखर उधाड़ले अर, आपरो काम काढै इसा मांड ही लै, हां उड़दू अलबत्ता बो ठीक जाणै हो। दस बारै साल सूं सहर में रैवतो। सहर म्हारै सूं तीन कोस पड़तो, डांभर री सड़क सूं मिल्योड़ो। एक दिन बो आयोड़ो बैठ्यो हो। कीं गुरबत सी करै हो म्हारै सागै। म्हारी एक काकी ही लागतै में बा आयगी, बोली “स्याणां म्हारै ब्याव रै ओढणै री कनार पड़ी है, च्यार महीनां छेड़ै छोरी नैं धोरियै चाड़नी है, जे बींरां (कनार रा) कीं सावळसर पीसड़ा उठ ज्यावै तो छोरी नैं चीज सज ज्यावै।”
मैं कैयो ‘हां’ ला देखावण में कांई लागै, सुलतान आपणै घर रो ही है।” बा लाई, सुलतान तोली बींनैं, पच्चीस भरी हुई।
बोल्यो, “बाबू सात रिपियां रो भाव है, पच्चीस भरी रा कित्ता हुया?” मैं कैयो, “पूरा ही पूणी दोयसै”।
“देखो, इयां तो हुवै म्हारा दस रिपिया मजूरी रा, पण आप कनैं सूं हूं पांच ही लेस्यूं। एक सो सित्तर आपनैं मिलसी।”
मैं काकी नैं कैयो, “क्यों?”
काकी राजी होगी। सुलतान बोल्यो, “अबकै पांच-सात दिनां नैं हूं आवतो आपरा रिपिया लाऊं।” म्हारै मन में कीं सळ को आयो नीं, “ठीक है,” मैं कह-दियो। बो गयो परो।
पांच-सात कठै ही गया, दिन-बीस हुग्या, बाबो आवै न ताळी बाजै। काकी नैं दस दिन हुग्या, रोज घोरा घालती नैं। मैं सोच्यो जाणबूझर आछो डाळो घाल्यो गळै में। कण ही कैयो, “अबै मोज करो, अबै किसो आवै, गयो किन्नैं ही। बिसायती अर मंगतां रो किसो गांव, मत्तो करै बिन्नैं ही मूंढो करलै।” दस दिन और निकळग्या। मैं छेकड़ मन में आ धरली, कै काकी नैं रिपिया एक सौ सित्तर घर सूं देणा है, अर आईन्दै कीं री ही पंचायती में पड़ूंतो तीन ही तिल्लाक। घर सूं एक दिन बोली, “हूं जाणै ही कै ओ छोरै नैं, कदेई मूंगफळ्यां देवै, कदेई कीं अर कदेई कीं, इंयां हिलतो हुतां-हुतां कदेई ओ फींच्यां में इसी टेकसी कै, याद रैसी घणां दिन, छेकड़ बा ही कर दिखाई ठोकलो, पींडियो अबै।”
मैं कैयो, “बो किसो चोरी कर’र लेयग्यो हो, बीं नैं तो दी ही आपां।” “भळे बीं री सारै और है, चोर नहीं तो कूड़ो तो है, और चोर रै कांईं सींग हुवै? म्हारो कांईं लियो, पूणी दोयसै रो गदीड़ लागसी तो थारै, मनैं किसा कमाणा पड़ै!”
“तो म्हारै लाग्यां तूं राजी, चलो तो ही आछो।”
बा पाछो भळै कीं कैऊ ही, पण इत्तै में काकी आ पूगी। एक सूं गिरै छूटी तो दूसरी आयगी बीं सूं मोटी। काकी नैं कैवण रो मौको दियां सूं पैलां ही मैं कैयो, “काकी, काल हूं सहर जास्यूं, थारी हकी नकी कर देस्यूं।”
“घणो ही आछो लाडेसर”, कहर बा अर बीं रै साग म्हारै घरआळी ही गई। हूं अबार तो खैर एकर कीं हळको हुग्यो पण असली भार तो ओजूं आंगळ ही छेड़ै को हुयो नीं। रिपिया मनैं लागता दीखै हा काच में चिलकै ज्यूं आवतै ही जद बण भायेला घाल्या, तो बीं बेळा ही मनैं समझ लेणो चाईजै हो, पण खोसीज्यां पछै भाज्यां कांईं हुवैं?
द्जै दिन साइकल लेर हूं सहर गयो। दो-तीन बिसायतां नैं पूछताछ करी, एन जणै कीं पतो दियो, बो गंगासहर रोड़ पर धूमचक्कर कनैं सी रैया करै। हूं आयग्यो। पूछतो-पूछतो गयो। एक गळी में संकड़ी सी एक कोटड़ती, सड़क री धरती सूं एक पगोथियो अूंडी। सामनैं एक रंगारी, बीं कनैं ही एक बूढो पींजारो, दो-एक बीड़ी-पेटी अर परचूण री दुकानां, बां में अधखळ सा आदमीड़ा। मजूरां रो मुहल्लो हो। गळी रै बीचोबीच गन्दै पाणी रो नाळो, बीं पर कठै-कठै ही पट्टी रा टुकड़ा उतर्योड़ा। रह-रह बास आवै ही।
बारणो खुल्लो दीस्यो। कीं तो जी जम्यो कै मांय कोई न कोई है तो सरी। कोटड़ती में उजास कीं माड़ो ही पड़ै हो, आथूंण मूंढै री ही। हेलो मार्यो मैं होळै सै, “सुलतान, ओ सुलतान।
“कुण हुसी” दब्योड़ी सी आ बोली आ’र बन्द हुगी, अर धांसी सुरू हुगी। आधी एक मिंट बाद फेर बाही आवाज “कुण हुसी, मांय आवोरा।” फेर आधी मिंट धांसी।
हूं मांय गयो परो। एक खूणै में मैली सी एक दरकली नांख राखी। एक रजावड़ी में गांठड़ी सी भेळो हुयोड़ो सो बो सूत्यो हो। एक खूणै में पेटी अर पेटी में राख्योड़ी बीं रो जनरल स्टोर। छोटी सी एक बोरसी। बीं कनैं ही छोटी सी एक सिल, बीं पर एक लोढियो, बिना धोयो, मिरच मसालां री बोदी अर करड़ी थर ओजूं वां पर चैठ्योड़ी। बीड़्यां रा टोटा, कान्दा अर लस्सण रा छूंतका च्यारां कानी खिंड्योड़ा। एक खूंटी पर एक लालटैण लटक, एकै पासी तवो तपेली अर थाळी पड़्या दीस्या। कोटड़ी में को बारी न को रोसनदान। बीड़ी अबार ही बुझाई हुसी। धुंवै री बास ताजी ही।
म्हारै बड़तां ही, सीरख सूं मूंढो काढ’र बो बोल्यो, “हां, कुण हुसी सावळ ओळख्या को है नीं।”
“अरे आजकालै गांव कानी आणो ही छोड़ दियो?”
“ओ बाबू साहब।”
नहीं नहीं करतां बैठो हुग्यो। मैं कैयो, “अरे रैणदै करै कांईं है।”
“करूं हूं जूण पूरी बाबूजी।” पेटी कनैं सूं आधै पूण मीटर रो एक गत्तो उठायो, म्हारै आगै बिछा’र बोल्यो, “बैठो बाबूजी।”
सरीर खासो बीत्योड़ी। पतळी छाछ तो ही आगै भळे पाणी पड़ग्यो। मैं कैयो “अरे रजावड़ी में बड़ज्या बेग्यो सो।”
रजावड़ी में बड़तो बोल्यो, “रजावड़ी में ही हूं बाबू, सत्ताईस-अठ्ठाईस दिनां सूं। पाणीझरो निकळ्यो हो पण,” फेर धांसी चालू हुगी, कीं ठैंर’र बोल्यो, “बीं री कीं चिन्ता नीं।”
“तो? ”
“आपरो दोसी हुग्यो बाबू, चिंता तो बा है। रिपिया भेजतो तो ही तो कीं साथै?”
“रिपियां नै गोळी मार, सरीर बेसरीर कींरै सारै री बात है, पैलां बात कर घर बिध री—अठै हीड़ो चाकरी थारा?”
“मौज है बाबू, मालक जिकै में व्याप ज्यावै, बो आ’र आपे ही चावड़ी रो पाणी अर दवाई दे’र जावै परो। सुलतान री चिंता बीं नैं ही है बाबू।”
“घरे समाचार कींनैं को दिया नीं?”
“मा है गांव में सित्तर साल री, सावळ सूझै-बाजै नीं, न पूरो टुरीजै-फिरीजै ही। छोटो भाई है, मजूर आदमी है बापड़ो। म्हारै एक छोरो है आठेक बरसां रो।” आधी मिंट चुप हुग्यो, जाणूं बींनैं भळे धांसी सुरू हुसी। पण को हुई नीं बा। बण फेर सुर कर दियो कैणो, “लुगाई बींनैं छव-सात महीनां रो छोड़’र गई परी, समाचार देवतो तो डोकरी दुख पांवती, भाई जे आवतो तो लारै बीं री गिरस्ती कियां चालती, मालिक रै आसरै ही हूं बाबू”।
बीड़ी रै घुटतै धुंवै रै मांयं, मनैं कीं असुविधा सी हुवै ही, मैं पूछयो,
“सुलतान बीड़ी पियै तूं?”
“हां बाबूं,”। रजाई दिखाई आपरी, केई जाग्यां सूं अंगूठो मावै जित्ता-जित्ता कोचरा हुयोड़ा। “अे बीड़ी रा प्रताप है बाबू।”
“म्हारै अठै तो बीड़ी कदेई को पीई नीं तैं?”
“काल नैं कींनैं ही नहीं सधै तो, कोई टोकै इसो काम ही क्यों करूं।”
कह’र थोड़ी धांसी भळे ली। कीं जी जमग्यो जद मैं पूछ्यो “अठै किताक बरसां सूं आव-जाव है?”
“दस-बारै बरस सूं।”
“पैलां? ”
“चूरू रामगढ़ कानी।”
“रैवास? ”
“सुजानगढ़”
इत्तै में एक छोरो आयो, बरस बारै—तेरै एक रो हुसी, बोल्यो सुलतान बाबा, लै दादी चाय भेजी है।”
“कुण नथियो? ”
“हां”
“जी भाई घणां बरस, मालिक मोकळो दे तनैं।”
छोरो बींरै सिराणै पड़ी गिलास में चाय धाल’र गयो परों।
“चायनैं मत ठार सुलतान, ” मैं कैयो।
ले लिया बण दो गुटका भाया जिसा। आपरै सिराणै नीचै सूं प्लास्टिक रो एक गोथळियो काढ्यो। बोल्यो, “लो बाबू, अबै काम री बात करो, छोड़ो और गोरख धन्धो। अै पीसा गिणो कित्ता है।”
“पीइसा फेर कर लेस्यां, तूं आसी जद।”
“फेर कींनैं ठा कद आवै। आयै भाड़ै म्हारो कीं भार तो हळको करो, सांस तो कीं सोरो लेऊं।”
मैं गिण्या। हूं बोल्यो “एक सौ छियत्तर रिपिया है।”
बण सिराणै नीचै भळे हाथ फेर्यो, एक च्यारानी काढ’र बोल्यो,
“आ और है।”
“पण मनैं तो एक सौ सित्तर ही लेणा है।”
“नहीं बाबू, बा कनार सवा सात बिकी, किता हुया सगळा?”
“एक सौ इक्यासी पच्चीस।”
“पांच म्हारा काढो।”
“एक सौ छियत्तर पच्चीस, ठीक है, पण सौदो तो आपणो एक सौ सित्तर रो ही हो।”
बो तो एक अन्दाज बतायो हो थांनैं हां कोसीस मैं जरूर करी, च्याराना जादा मिलग्या, बै अगली रा भाग।”
हूं, रजाई सूं बारै निकळ्यै बींरै दुबळै-पतळै चैरै कानी दो मिंट देख ही बो कर्यो, देख, तपस्या कठै आ’र आसरो लियो है। हूं बोल्यो
“सुलतान तूं पच्चास रिपिया एकर राखलै, हुवै जद दे दिए।”
“नहीं बाबू, थारी मैर है, एकर गांव जास्यूं मा कनैं, फेर कांईं ठा, बात किसी घड़ बैठै?”
“तो थारी मजूरी रा पांच रिपिया और हुवै, बै तो राख।”
“नहीं बाबू, तै हुया बै राख लिया।”
“तो हूं थारो कांईं मदत करूं सुलतान, मनैं सफा निरास तो मत कर।”
“बाबू, थे हुवो न इत्ती दूर आ’र म्हारो भार हळको करो, आ मदत कम है?”
“अबकै पाछो आऊं जद, भळे कीं मजूरी करवाया।”
“घरे कांईं कीं भेज देवतो हुसी?”
“अै ही पच्चीस-तीस रिपिया, पेट काढ’र और कांईं ऊबरै बाबू।”
“तो कर आराम तूं, हूं जाऊं अबै?”
“हां बाबू, एक म्हारी अरज है, मालक थारो भलो करसी, मानो तो?”
“हां बोल भाई?”
उठ्यो, एक भांड मां सूं पांच-सात मूंगफळ्यां काढी, “लो, म्हारै बीं—नान्है दोस्त नैं दे देया।”
हूं कांईं बोलतो, बोलण री सीमा टूट्यां ही केई दिन हुग्या हा। कीं महात्मा रो परसाद कोई सिर पर राख’र लेवै जियां मैं ले लियो। आयग्यो हूं।
रह-रह एक विचार आवै हो कै भलां ही ईं रै नीचै सिंघासण मत हुवो, बीं आंधी कोटड़ी में ही बो सुलतान है बिना ताज बिना सिंघासण। लेणो तो जाणै ही को है नीं। कांईं करसी ईं री होड कोई सुलतान अन्धकार में सैंदेह चेतना पिंड सै, बीं मानवी ढांचै पर हूं रह-रह सोचै हो अर आज ही बिंयां ही सोचूं।
केई बरस हुग्या सुलतान ओजूं को बापर्योनीं। इन्नै-बिन्नै पत्तो ही लगायो मैं, पण सुलतान रो सुराग को मिल्यो नीं। घणी बार चेतना में सूत्यो सुलतान जाग’र ऊंचो आवै, कुण जाणै बो कद आसी?