बो जद हेठै दब्यो तो लाग्यो कोई सिल हुयसी पण सिल कोनी ही, जाणै पूरो पहाड़ हो। बो जियां-जियां जोर मारै हो बियां-बियां पहाड़ री दाब बध्यां बगै ही। उण आपरी नाड़ कीं और ऊंचाई अर कांधोळा रो जोर बधायो पण पहाड़ दर कोनी ऊंचाईज्यो अलबत्त कीं और हेठै सरक आयो। अबै उणनै पकायत लाग्यो कै पहाड़ उणनै दाबनै मारसी। पण उण पग कोनी छोड्या। डील पसेवै सूं चोवै हो अर छाती पाटण नै हुयरी ही। धड़क...धड़क...सांस मावै कोनी हो उण अेकर-अेकर आपरा पग ओज्यूं जमाया पण हेठै पिंडी धूजै ही। पिंडी कांईं अबकाळै स्यात काळजो धूजै हो। अेक गादड़ो मल्लोमल्ल भीतर बड़ आयो, “नीसरीज्यो तो कोनी... मटो दाबसी...।” पण फेर उण आपरी आखी सगती भेळी करी अर अेकर ओजूं जोर मार्‌यो। अबकाळै लाग्यो कीं तो सरक्यो है जाणै पण पछै अचाणचक ई...धैं...ऽऽ। उण रा पग फ्यायिज्या अर अबै बो हेठै पसर्‌यो पड़्यो हो।

बो टसक्यो तो आमी री आंख खुलगी।

“आ... अै तो पसेवै सूं नहाईज रैया है...।” देख्यो राफां मांय पाणी चालै हो अर कुड़तियो पसेवै सूं भीजर्‌यो हो। भाजनै दीपै रा बूकिया झाल्या अर बैठ्यो कर्‌यो। सिरआणै पड़्यै पोतियै सूं मूंडो पूंछ्यो अर पाणी रो गिलासियो झलायो। रूअै घड़ियै रो पाणी। गटागट पीयग्यो दीपो। पाणी ढळतां कीं जी सोरो-सो लाग्यो अर मूंडै चेळको बापर्‌यो। अबै दीपै आपरै साम्हीं बैठी आमी कानी देख्यो।

आमी उणरी जोड़ायत। उणरी सुख-दुख री साथण। सुख री तो नीं पण हां... दुख री मानो। उण तो इण घर मांय आयां पछै हरमेस दो-आना-दो री देखी है। कदैई ऊगळ-मूगळ देखी आथ कोनी। अठै तो रोज कुओ खोदो अर रोज पाणी पीवो।

पाणी पीयां पछै अबै कीं सावळ हो। थोडी ताळ मांय आमी काढै री बाटकड़ी लेय आयी। बो गटगट पीयग्यो। मूंडो भैड़ो हुयग्यो पण हो जी-सोरो।

दीपो सोचै हो, कित्ती आछी है आमी। डील री अर मन री ई। आयी बिस्यो भरवां डील तो कोनी रैयो अबार... पण घणी कटी कोनी हाल तांई। खावण नै किस्यो न्यारो मिलै उणनै पण सरोढ है अर साथै सधीरी ई। जिस्यो मिलै बो अमी है आमी सारू। टोटै मांय कठै घी रोटा। अर टोटो तो आमी रै आयां सूं पैलां रो है इण घर मांय। कमाऊ कुण हो? बापू हा अेकला। अेकलियो बळद अर छैहां रो भार। बो अर उण सूं बडी तीन भैणां। पांच सेर तो कणक फाक जावै काची। आवण अेक अर खरचा हजार। पण फेर मां धीरप राखती, “टोटो-टाटो... माणसां सुख चाईजै... मला।”

अर इयां, भूखो-भूखो घर, फेर भर्‌यो-भर्‌यो रैवतो। इण भर्‌यै घर मांय मां आखै दिन चक्करडंडिया फिरबो करती। चूड़ी चढ्यां बापू रैवता पण तो छेकड़ निभायग्या। आपरी तीनूं बेटियां रो ब्याह हाथां करग्या। आमी आयी जद तो बापू रैया कोनी हा। मां ही अर बो हो। पण आमी रै आयां सूं घर अेकर ओजूं भर्‌यो-भर्‌यो हुयग्यो हो जाणै। आमी जाणै अैन सागी मां ही। घरां जको कीं हो, सो-कीं जचायां राखती। बडै झांझरकै उठणो अर चाकी झोवणी। पछै गाय नै फूस नाखणो। मां सारू तातो पाणी करणो अर सगळां सारू चाय बणाणी। हळवां-हळवां जाणै मां मांय रळती गई। अर अेक दिन झांझरकै मां जद आपरो जच्यो-जचायो घर बिसारनै राम रै घरां ब्हीर हुयली तो साच्याणी आमी मां हुयगी।

बा मां मतलब आमी अबै दीपै नै बींझणै सूं पून घालै ही। बारै अगूणै पासै भाख पाट रैयी ही अर दिन ऊगण नै हो।

“रैवण दे... कोनी सुहावै नीं!” दीपै नै पून सुहावै कोनी ही।

“सुहावण नै तो किसी गरमी है अबै। काती टिपण नै हुय रैयी है। पसेवो तो थारै कमजोरी रो है।” आमी बींझणो मेलतां कैयो।

“हम्बै..! कमजोरी तो है ई...। ताव सूंत लेवै डील नै।” दीपै री आवाज डूंगी-डूंगी ही।

“पण थे इयां जाबक अलगरजी नां करो ना... हां। रेहड़ी री उतावळ मांय इसी बावळ सावळ कोनी। आज दिखाय आवो डाक्टर नै। रोज पाळो दे-देयनै आवै... और कीं नां होय जावै कठैई..?”

“और कीं नै कांई हुवै हो..? काढो लेवूं तो हूं रोज...।” दीपो जाणै टाळो लेवण री गरज सूं कैयो।

“काढै सूं फरक पड़तो तो पड़ जावतो नीं हाल तांई..! कीं कोनी, थे तो दिनूगै-दिनूगै सफाखानै जाय आवो... इंदर नै साथै लेय जाइयो।” आमी नै ठाह है अै टाळा क्यूं लेवै। सफाखानै जावण रो मतलब हुवै केई दिनां री ध्याड़ी पार हुवणी। पण जोर तो कोनी। पीसां खातर किस्या पिराण दे देवां?

“उण टाबर नै लेय जावूं म्हैं कांईं नानड़ियो हूं..? म्हैं अेकलो जाय आस्यूं।” दीपै नै ठाह है जावणो तो पड़सी ई। कोई कोई ब्याधी तो है भीतर। नींतर इयां इकांतरै ताव थोड़ी आया करै। परस्यूं तो सिलगै हो। काल-काल नीसर्‌यो है बिचाळै। बियांस चिरण-पिरण तो केई दिनां सूं ही। काम करतां-करतां आळकस आय जावै आं दिनां। घड़ी अेक मांय तो लागै जाणै डील टूटसी अर घड़ी-स्यात पछै अैन चैन-मैन।

आवती ठारी रा दिन। काती ढळगी ही। उण दो-अेक दिन तो गौर कोनी करी। रात नै आधीक पछै धड़धड़ी-सी चढै अर पछै जाणै केई ताळ पछै मतै सावळ लागण लागै। उण सोच्यो- आखै दिन रेहड़ती घींसता-घींसता डील थाकेलो मान लेवै स्यात। कांई नेप है पहाड़ मान दिन रो। अर दिन किस्यो सुरजी उगाळी सूं सरू हुवै? कीड़ती ढळतां मांची छोडणी पड़ै। दिसा-जंगळ जावणै अर न्हावा-धोयी मांय दिन ऊग आवै। रेहड़ी लगावतां लगावतां तो सुरजी दो लाठी चढ आवै। अळगी बात है कै स्हैर री पैली गळी मांय जद बो पग धरै अर हांक देवै “आलू...बताऊ...गोभी...पालक अर प्याज...लेल्यो” तो घणकराक तो उठेड़ा कोनी हुवै। केई तो उणरी हांक सुणनै ऊभा हुवै जाणै मुरगो अबै बोल्यो हुवै। बो मांय-ई-मांय सोचनै रैय जावै “लिखायनै ल्याया है भई!”

आं लारलै केई दिनां सूं उणरै अेक आळस-सो रैवै हो। उठै तो जाणै सतंगा-सा टूटै। जी मांय आवै कांई डांग है आ? पण पछै उठणो पड़ै। पेट रै गांठ तो कोनी। जींवतै-जी नै सो-कीं चाईजै। दिनूगो हुवै चायै आथण, घरां सूं तो नीसरणो पड़ै। घरां किसी बखारी है। हां, जे मां री मान लेंवतो तो स्यात..!

जद-कदैई उणनै मां री बात चेतै जावै। मां हरमेस कैवती, “बेटा, थारै बापू तो पलदारी कर-करायनै पेट पाळ दिया सगळां रा पण थारै सूं इत्तो अबखो काम हुवै आथ कोनी। आपणै तो कोई दुकानड़ी कर ले। और कठैई नीं तो अठै घरां साम्हीं सड़क माथै चिणले मला।” मां रै कैयां पछै उण अेकर मन मांय तेवड़ी ही पण मन मांयली छेकड़ मन मांय रैयगी। करै कांईं, पग टिक्या तो कोनी। पल्लै नांणो तो रैयो हो कोनी तो सोच्यां कांई बंटै? जको कीं हो बो उणरै खुद रै ब्याह मांय लाग लियो। पछैस खरचां रो निवेड़ कोनी। लगोलग बारवैं महीनै जापो अर इण बिचाळै कदैई बुआ आयज्या तो कदेई भैण। पछै रा दिनां मांय तो टाबरां री पढाई रो खरचो पाटणो मुस्कल हुंवतो गयो। अलबत्त टाबर तो दो है अर है सूधा। घालै बठै जावै। पांच रिपीया दे देवो तो छैह महीनां पछै पूछ लेवो भलाई, हलावै कोनी। पण फेर कांईं कोनी लागै। भैणां रो ब्याह भलां बापू थकां हुयग्यो हो पण भात-बड़ोलिया तो उणरै जुम्मै हा। कदै-कदैई तो लागै जाणै घिरस्थी काळियो नाग हुवै। खरचै रो अेक फण दाबै तो सैंस बारै नीसर आवै। खरचै सूं खरचो जामै। दुकान करण रो किस्यो उणरो सुपनो कोनी हो, पण सुपनो मन मांय रैयग्यो। अबै तो रेहड़ी दुकान ही उणरी। जकी रुत साथै आपरो बाणो फोरती रैवै। सरदी-गरमी अर बरसाळै रा गाभा दांई। सरदी मांय काळिया-धोळिया अर रंगील चीणा साथै मूंफळी, साबत गोटा अर पापड़ी-गज्जक आद रैवै तो गरमियां मांय गन्नै रो रस का पछै बरसाळै आवता-आवता टिंडी-भिंडी अर भांत-भांत री साग-सब्जी।

पचास रो कोनी हुयो दीपो, पण लागै पचास सूं बेसी है। चिंताळु तो है जको है कीं रुहाड़ इसी है। कानी देखणियै नै लागबो करै जाणै इण माणस रै मांय-ई-मांय कीं घाटबाध है। बियांस साम्हलो कांई सोचै, इण री गिनरत कोनी करी कदेई दीपै। आपरी चाल चालबो करै। “गाम आवो भलांई नां आवो...पैंडो तो कटसी” री तरज माथै।

आं दिनां जाबक चुप-चुप-सो रैवै दीपो। आमी सूं छानो कोनी। सो जाणै। साम्हीं दीसै बो अर जको साम्हीं कोनी बो ई। उणनै किस्यो ठाह कोनी आजकलै आं रै मांय-ई-मांय कांई चाल रैयौ है? पसेवो तो ताव-सिरवा रो आयो हुयसी भलांई पण अै जका केई-केई ताळ तांई इकलंग देखबो करै कड़ियां कानी... उणनै किस्यो बेरो कोनी? छोरी टीबड़ै ढळाणआळी हुयी खड़ी है अर पल्लै पीळियो पीसो कोनी।

लारलै सूं लारलै मंगळवार नै जद सूं आमी रो मौसो आया हा तद सूं दीपै री हालत ही। आमी रै मोसै रिस्तो सीध कर्‌यो हो। कावळ कोनी हो, सावळ हो रिस्तो। छोरो बीजळी विभाग मांय लागेड़ो हो। दान-दायजो कीं चाईजै नीं हो। सुअै बरगो छोरो अर सधीरो परिवार। बस... दूजबर हो। रिस्तो दीपै रै जच्यो पण दूजबर आळी बात सुहायी कोनी। आमी सामलां नै जाणै ही। छोरो देखेड़ो हो उणरो। अेकर मौसी रै अठै भतीजी रै ब्याह मांय गयेड़ी ही जद आयेड़ो हो।

दीपै सगळी पड़ताळ करली। पैलड़ी कियां मरी ही अर आं रो खोट हो का नीं हो...। सैंग ठाह लागग्यो हो, पण फेर फिर-घिरनै बात अठैई आयनै अड़ै ही कै छोरो दूजबर हो। रोजीना आखै दिन घड़ामंडी मांय रैवै अर सोपै तांई कीं टांडै-बिल्लै लागती लागै पण माथो ओजूं भूंग जावै... छोरो दूजबर है...।

आमी रै मौसै दो रिस्ता बताया हा। दूजो रिस्तो सावळ हो। “मांग तो कोनी ही बठै पण फेर जोर तो आयसी ई।” मौसै रै इयां कैवण रो मतलब दीपो जाणै हो। छोरियां री भलां कित्ती कमी हुवै, फेर छोरैआळो तो छोरैआळो हुवै। अर पछै घरां जद दो-च्यार बटाऊ आय जावै तद रोजीनगी रो बैलेंस बिगड़ जावै तो तो खैर ब्याह रो काम हो। दीपै फोर-फोरनै केई बरियां देख लियो, पण साव चडूड़ गेलो कोनी दीसै हो उणनै। कोनी कै उण आमी साथै बात नीं करी हुवै, पण आमी नै चांवता थकां बात कोनी बता सक्यो कै दूजबर सारू उणरो जी कोनी करै जको तो कोनी करै, पण इणसूं अळगी अेक बात और ही जकी मांय मांय रोड़ै ही उणनै। असल तो ही कै बो आमी नै कांई बतावै हो, खुद उणनै ठाह कोनी हो कै क्यूंकर हुंवती बगै ही आजकलै।

बो इणी स्हैर रो जायो-जलम्यो। अेक-अेक नै जाणै। गळी-गळी पिछाणै। कठै दरड़ा है, कठै कादो, कीं छानो कोनी उणसूं। दिनूगै पैलां कुणसी गळी मांय बड़ जावो भलां ई। सेठ-सेठाणियां, जाट जाटणियां सैंग उणनै नांव सूं जाणै।

“गोभी कांई भाव देसी दीपा...?”

“आलू तो कीं नरम है दीपा...”

“आज तो मोड़ो कर दियो दीपा।”

लोग तो उण रा भूंदेड़ा चीणा खातर उडीकबो करता। पण...अचाणचक स्हैर रै कांई हुयग्यो ठाह नीं। सो-कीं अणसैंधो-सो लागबो करै। बिकरी तो घटी जकी घटी, जाण घटगी। आखो स्हैर ओचट अणसैंधो हुयग्यो। रामरुमी छोड, कानी कोनी देखै कोई। तीन-तीन दिनां तांई भेयेड़ा अर फोसरा भूदेड़ा चीणां री तिथ कोनी बांचै लोग। जठै चौरावै माथै उण अेकलै री रेहड़ी लागी रैवती बठै अबै रेहड़ियां री लैण लागी रैवै। सिंझ्या-सीक तो भीड़ मावै कोनी। लोगां कनै फुरसत फुरसत हुयगी जाणै। पैलां जद सिंझ्या हुवण नै हुंवती तो सैंग फणियां रै ताण आवता, “घाल-घाल दीपा, दस रा धोळिया चीणा घाल उतावळो-सीक...।” पण अबै लोग हाथां मांय प्लेट लियां ऊभा रैवै आराम सूं। छोला-भटूरा... चाट... पीजा... बरगर... ठाह नीं कांईं-कांईं? अेक-अेक रेहड़ी माथै तीन-तीन जणां काम करै, पण फेर पूरा कोनी आवै। लोग अेक प्लेट सूं नीं धापै तो दुजी अर तीजी लेवै। टाबर-टीकर अर धणी-लुगाई मतलब घर रो चूसो-चूसो आवै तो भीड़ कद मावै?

दीपै अेकर तो मत्तो कर्‌यो कै काम बदळ देवणो चाईजै। पण पछै सोच्यो-बदळणै सूं कियां हुयसी, सीखणो पड़सी। उण तो आज तांई चीणा-मूंफळी अर गज्जक सिवाय कीं बेच्यो कोनी। अंट-संट बणासी कुण? अर फेर बो अेकलो माणस, ताबै कियां आयसी? कम सूं कम अेक जणो तो और हुवणो चाईजै नीं! आमी सूं बात करूं कांई? नां... नां... लुगाई नै लगाबूं...? किस्यो बौपार है। उण मत्तो ढाह दियो।

दूजै दिन उण आपरी रेहड़ी अेलआईसी कानी आळी कुंट माथै लगाली। अैन मेनरोड़ रै सारै। लोग भलांई इन्नै सूं आवो भलां बिन्नै सूं उणरी रेहड़ी अळगी अर दूर सूं दीसै। कीं फरक तो पड़्यो मटो। आवता-जावता स्कूटर अर केई-अेक साईकलआळा थम्या। कीं भीड़-सी हुवण लागी। उण उतावळा-उतावळा आपरा हाथ चलाया अर कीं तोलनै अर कीं अंदाजै सूं दबादब चीणा अर मूंफळी कागद रै ठूंगां मांय घालनै झला दिया। उण देख्यो जित्ती तेजी सूं उण पांच-सात गिरायकां नै सलटाया हा उत्ती तेजी सूं गिरायक तो सलटग्या पण और गिरायकां री भीड़ बधगी। पण भीड़ उणरी रेहड़ी सारै नीं ही। उणनै अचुंबो हुयो। अछंट उणरी रेहड़ी रै दोनूं कानी केई सारी रेहड़ियां आयनै ऊभी हुयगी ही। अबकाळै भीड़ आं रेहड़ियां सारै ही। अबै बो ओजूं अेकलो ऊभो हो। उणरै समझ मांय कोनी आयो कै उणनै कांई करणो चाईजै। बो दिन तो जियां-तियां छिपग्यो पण रोज इयां रो इयां कियां छिपाईजै? मालो हुयग्यो तो..।

दूजै दिन अर तीजै दिन जद सागी रो सागी सांग रैयो तो उण आमी नै बतावणी री सोची। घरां बड़्यो तद तांई उण सोच राख्यो हो कै आज घरां जिकर तो करां दखां। कांई ठाह बतळायां कोई मारग लाध आवै। पण औचट उणरै लिलाड़ मांय जाणै ‘सरण... ऽऽ’ देणी-सी कीं हुयो अर बो सैंतरो-बैंतरो हुयग्यो। तो उण ख्यांत कोनी करी ही। उणनै चेतै आयी कै उणरै सारै सगळा रा सगळा रेहड़ीआळा भाईड़ा तो नूवां हा जका हा ई, भीड़ नूवीं ही। उण जकां-जकां नै मूंफळी अर चीणां घाल्या हा बांरा चैरा चेतै करणै री कोसिस करी पण अेक उणियारो पिछाण मांय कोनी आयो। उणनै इचरज हुयो कै इयां क्यूंकर हुयी? लोग रात्यूंरात कियां बदळग्या? नां... नां, इयां कोनी हुय सकै? स्हैर तो हळवां-हळवां बदळग्यो हुयसी... स्यात उणनै ठाह नीं लाग्यो हुवै, पण स्हैर रा लोग इयां रात्यूंरात बदळग्या? अर उणरै पछै आमी नै बतावण रो मत्तो ढाह दियो दीपै।

इणरै दूजै दिन चिरण-पिरण-सी रैवण लागी अर छेकड़ परस्यूं पाळो देयनै ताव आयग्यो। अबार ताव आवता नै तो तीजो दिन हो, पण चिरण-पिरण नै...?

दीपै आपरै लिलाड़ माथै जोर देयनै चेतै करणो चायो कै औ-सो कद सूं है? अचाणचक तो हुयेड़ो कोनी। उण गौर कोनी करी हुयसी। नींतर रात-रात मांय स्हैर बदळ्या करै नां! सक-सो तो उणनै केई बरियां पैलां हुयो स्यात! आं दिनां बो जकी गळी मांय जावतो रोज किणी-न-किणी घर रो बारणो फुर्‌यो लाधतो। उण खास गिनरत कोनी करी। सोचतो इयां लागतो हुयसी। रोज गळियां ऊंची हुय रैयी है अर घरां रा बारणा ई। चेजी-भाटै सूं लागतो हुयसी अर बो मन मांय आयेड़ी बात तिसळा देंवतो। स्हैर रै अैन बिचाळै राणी बाजार तो आं दिनां पिछाण मांय कोनी आवतो। रात्यूंरात जाणै जादू री संटी सूं दुकानां रा सटर रावण रै पूतळै दांई ऊंचा हुयग्या हा अर दिनूगै पैलां सटर खुलतां पळपळाट करतै काच मांयकर दीसतो रंगरंगीलो सामान जाणै किणी दूजै लोक सूं मंगवायेड़ो हुवै। बो आपरी सब्जी री रेहड़ी लियां राणी बाजार मांयकर नीसरतो तो लागतो जाणै बो किणी बोदै ग्रह सूं भटकेड़ौ जीव हुवै, जको लाई आपरै तनायतां नै पिछाणतो फिरै। पण बठै आपरा कठै? जाणै सैंग रा सैंग नूवां अर अणसैंधा हा। बो रेहड़ी लियां हळवां-हळवां नीसरै, स्यात कोई सब्जी सारू टोक लेवै। पण जाणै उणरै खुद दांई उणरी सब्जी बोदी हुयगी। बो सब्जी नै ओजूं आपरै तोलियै सूं पूंछै अर धरै पण धर्‌यां राखो भलांई। उणरै मूंडै अैन साम्हीं मोटै सटरआळी खुली-खुली दुकानां अर बां रै बारणां मांय पळकती काठड़ियां मांय पळकती सब्जी। अंगूरिया अर संतरा देखै तो देखतौ रैय जावै कोई। मंडेड़ा-सा। सेव तो इत्ता राता जाणै कुणई रंग कर्‌यो हुवै। गत्तै का प्लास्टिक रै डब्बां मांय जचायेड़ा। परची न्यारी लागेड़ी। लोग दबादब खरीदै पण डबड़ा रीतै कोनी। अेक चकीजै तो दूजो आय जावै। कोई तोल नीं मोल। ठूंगै मांय घालै अर पार। उण आपरी आंख्यां मिचमिचायी... सावळ सूं ओजूं कानी देख्यो उणरी रेहड़ी माथै री भिंडी सूं दूणी ही दुकानआळी भिंडी। टींडसी जाणै प्लास्टिक री हुवै। अेलईडी रै च्यानणै मांय पळपळाट करै ही। क्यूंकर हुय सकै? सब्जी आयी तो मंडी सूं है? अै किसी घरां बणावै? पण... पण स्यात...? हां, उणरै समझ आयी... कठै नीं कठै बदमासी हुवै। माल री छंटाई हुवै अर छंटेड़ो माल मिलै म्हनैं। तो?

तो?

बस्स! अठैई आयां रोळो पड़ग्यो। आज तीजो दिन है। उणरै समझ मांय कोनी आवै कै करणो कांई चाहीजै। अेक बात और ही अर स्यात बात आमी ने बता दी ही उण। उण दिन बां दोनुआं कोई खास गौर कोनी करी। आज इण बगत उणरै ओजूं चेतै आयगी बा बात। मोटोड़ी सड़क माथै तो कोनी पण मोटोड़ी सड़क माथै जको फांटो है उण फांटै सूं दिखणादै पासै कीं भीतरनै जायां जठै सूं आबादी सरू हुवै बठै अैन मोड़ सूं चिपतो अेक प्लाट छोड लागतो उणरो घर है। उणरै घर सारै कूंट माथै अबार दो साल हुया है तीन मंजली हेली घली है अर उण पछै उणरो खुद रो घर है ई। इणरै पछै री लैण ठाडै-ठाडै घरां री है। उणरो घर तो बिचाळै छूटेड़ी खाली जग्यां-सी लागै। कूंटआळो सेठ मोटी पारटी है। मोटा नै तो सगळा अठै मोटा है, उण अेकलै नै छोड। उण दिन बो रेहड़ी लियां पूठो घरां आवै हो कै सेठ आपरी कार कोठी मांय बाड़तै उणनै रोक लियो।

“कियां दीपाजी?” सेठ उणनै दीपो कैया करै। पड़ौसी तो हो जको हो केई बरियां कारण अेढै साग-पात ल्यायनै देयेड़ो है। सेठाणी तो खैर जाणै जाणै। पण आज दीपै सूं दीपाजी..? बो उथळो देंवतो उणसूं पैलां तो सेठ ओजूं बोल पड़्यो, “दीपाजी, थारली जिग्यां देवो तो देख लेइयो... अबार भावड़ा सावळ चालै...!”

उण कीं उथळो कोनी दियो अर हुय सकै, “देख लेस्यां...” कैय दियो हुवै, उणरै सावळ सूं चेतै कोनी, पण उतावळ करनै बो घरां बड़्यो। घरां उण आमी नै बतायो। सुणनै आमी कीं कोनी बोली। जद पछै सेठ ओजूं तो कोनी टकर्‌यो पण आं दिनां उणनै लागण लाग्यो कै बात और है। फगत ताव रो कारण कोनी कै बो सिल हेठै का भींत हेठै दबतो जावै...। दाब तो कोई और है।

उण ख्यांत करी, उणरो घर कांई दबेड़ो-सो लागै... अै लोग खुद उणनै दाबसी। आं दिनां जठै बो रेहड़ी लगावै बठै दूजा सैंग रेहड़ीआळा जाणै उणरै ऊपर आय चढसी। बो घणो निरवाळो अर अेकलो ऊभो हुवै, पण फेर गदागद केई सारी रेहड़ी सांप-छत्तां दांई अेकदम उणरै आसै-पासै आयनै ऊभी हुय जावै। बो मांय मांय फळीबंट हुयनै रैय जावै। कर कांई सकै? उणनै भळै चेतै आयी, आं दिनां कोई उणनै नांव लेयनै कोनी बतळावै। छिदी-पाधरी लुगाई सब्जी तो लेय लेवै... पण जाणै क्यूं उणरै कानी कोनी देखै। बो खुद बतळावण रो सुंवाज करै जद तांई का तो बा आपरै बारणै लंघ जावै का पछै बो उणरै चैरै कानी देखतां ओळखण री कोसिस करतो रैय जावै। अचाणचक कांई हुंवतो जावै उणरै?

उणरै का स्हैर रै?

बो खुद तो सागी है। किस्यो बदळग्यो?

तो कांई स्हैर बदळग्यो?

इयां कांई बदळग्यो?

कोनी बदळ्यो तो पछै कोई उणनै पिछाणै क्यूं कोनी, अर और तो और, बो खुद किस्यो पिछाणै नां?

आखो स्हैर नूंवो है जाणै। कदै-कदैई तो लागै जाणै बो चूंध जायसी आं गळियां मांय। अेक दिन तो साच्याणी चूंधग्यो। उण दिन काचा सिंघोड़ा हा रेहड़ी माथै। अेक-दो कांई आखी गळियां गाह आयो। सिंघोड़ा कानी देख्यो कोनी कुणई। फिरतां-फिरतां रांग-रांग हुयग्यो। होठ गोडां माथै आवण नै हा। पण सोच्यो कीं ताळ और सही। घरां ढोयां कांई फायदो! आज कोनी चलै तो दूजै दिन कुण आदरै? बो आपरी जाण मांय सागी गळियां मांय दूजो गेड़ो देवणो सरू कर्‌यो पण थोड़ी ताळ पछै चूंधग्यो। क्यूंकर हुयी मटी? गळी तो कंदोईयां आळी ही नीं? अर... अर... बठै तो किसनलालजी रो घर हो। काठ री मंडेरीआळो। गळी कांई भूल सकै बो। बिच्यारा सुरगां सिधारै, पण उणनै तो केई बरियां सारो लगायेड़ो है वांरो। नां-नां इयां कोनी हुय सकै। गळी तो बा सागी है। बठै बा खाली पड़ी जिग्यां कोनी आज। उणसूं अैन अड़तो तो वो तकियो हो नीं? बो कठै गयो? स्यात... स्यात बो चूंधग्यो। गळी कोनी... इण सूं आगली हुय सकै। बो इब जाणै सिंघोड़ा बेचण खातर नीं, किसनलाल आळी गळी ढूंढण खातर फिरै हो। उण सूं आगली गळी मांय बड़्यो। कोनी, कोनी। उण सूं आगली कोनी। गळी पछै गळी। गळी मांय गळी। बो जाणै किणी भंवरी मांय अळूझग्यो। उण आसै पासै अर ऊपर देख्यो। नूंवी-नूवी अर सगळी अेक बरगी हेली। सुरख लाल अर लीलै रंगां मांय रंगेड़ी। ठाडी अर आभो छेकती। लगैटगै सगळी अेक बरगी-सी। उणरै अेक हेली पिछाण मांय कोनी आयी।

“हे रामजी...ऽऽ...।” उण आपरो भूंवतो माथो पकड़ लियो अर...।

उणनै चेतै कोनी बो कियां उण भंवरी सूं नीसरनै घरां आयो हो।

दिन ऊग्यां नै केई ताळ हुयगी ही। आमी उठनै बुहारी-झाड़ी कर आयी ही। मंजू अर इंदर स्यात हाल तांई सूत्या हा। आमी चाय बणा ल्यायी। दीपै नै कोपड़ो पकड़ायो अर आपरी बाटकड़ी लेयनै सारै बैठगी।

“अबार तो जी-सोरो लागै स्यात?” पीढै बैठती आमी पूछ्यो।

“है तो सावळ, पण... आज रेहड़ी कोनी लगावूं।” दीपै कीं थमनै कैयो तो आमी इचरज सूं कानी देख्यो।

दीपो भळै बोल्यो, “पैलां सफैखानै जायनै आयस्यूं।”

आमी मुळकी, चलो बात मान्या तो सरी। बोली, “डाक्टर नै सगळी बात पूछ लेइयो।”

दीपो कीं कोनी बोल्यो। आमी कोपड़ा बाटकी चक्या अर गई परी, पण उण लाई नै ठाह कोनी कै दीपै डाक्टर नै कांई पूछण री सोच राखी है?

स्रोत
  • पोथी : इक्कीसवीं सदी री राजस्थानी कहाणियां ,
  • सिरजक : पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ ,
  • संपादक : मधु आचार्य 'आशावादी' ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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