जिनगांणी अर मौत बिचाळै अेक पड़दौ होवै—झीणौ सो’क, जकौ सरकै नीं, जित्तै भींत जिस्यौ कांम करै। अर सरक्यां...? दिन... महीना अर बरसां रौ फासलौ पल-छिन मांय सांवटीजै।

म्हैं बनवारी री बात करूं... बनवारी स्याग री। स्यात थे वीं नैं जांणौ कोनी। पंचोटियौ मिनख। साढी छह फुट रौ डील... तड़ींग-सो। सफाचट मूंढौ। कलफ गेरेड़ौ चोळौ-पजांमौ। उमर पैंताळीस रै लगैटगै। गांव में कठैई रोळौ-बेदौ होवै... भाज’र बनवारी नैं बुलाइजै। किणीं गरीब-गुरबै री छोरी रौ ब्याव नीं होवतौ लागे, तौ बनवारी रौ बटुऔ त्यार। थांणैदार-बीडीओ आवै, तौ बनवारी वाळै घरां। गांव तौ गांव, गुवाड़ मांय वीं चौगड़दै बनवारी बनवारी हौ। अेक गड़कै सरपंच रैय लियौ, पण कठैई कोई मोद नीं। वा आ-बैठ, वा मनवार। बिंयां रांम री मे’र ही। सत्तर बीघा जमीन। खूडौखूट भींजै। मांय बिजळी वाळौ ट्यूबवैल न्यारौ। दांणा कांकरा ज्यूं भेळा करै। दो भाई...। आगड़ा ठाठ हा। बूढियौ तिसळ्यौ, तौ दोन्यूं न्यारा होयग्या। बिंयां बूढियै रै जीवतां थकां दो आंगणवाई बणाली ही बनवारी। दोन्यूं आंगणां बिचाळै कड़ सूदी भींत। लुगाई-पताई कड़ पाधरी करै, तौ कीं ओट रैय जावै। न्यारा होया, तौ पुरांणियौ आंगणौ छोटियै भाई स्योदै कनै अर नूंवोड़ौ बनवारी रै पांती आयौ। हां... बिचाळै री भींत अबार बिंयां है।

बनवारी म्हारौ लंगोटियौ हौ। घूतौ-गिंडी अर कुरां री बातां जांणै काल री-सी लागै। बांकली कींकर रै थोथ पेढै सूं तोतै रा बचिया काढतां थकां गिट्योड़ी आखी दुपारी हाल आंख्यां मांय तपै जिंयां। कींकर री सूळां सूं पींडी अर साथळ बींधी’ज जावती, पण वां दिनां रौ अेक नसौ होवै। गोडा-कुणी छुलै, तौ छुलौ भलां ई। छेकड़ खरखोदरै मांय हाथ घाल’र बचिया काढ लेवता। केई ताळ तांई कींकर हेठै बैठ्या रैवता। बचियां साथै रमता। वां रै कंवळै-कंवळै डील नैं परसता। दिन कद मांयकर ढळ जावतौ, घरां आवण री मून बात होवती अर वो कींकर रै पेढै ओजूं चढतौ। सरक’र खरखोदरै तांई पूगतौ अर म्हारै कांनी लांबौ हाथ पसारतौ, “ल्या पूठा छोड दूं।”

म्हैं वीं री आंख्यां मांय झांकतौ। साफ अर झीणी आंख्यां। ठाह नीं कांई हौ वीं री आंख्यां मांय। आज जद कदैई वां दिनां री ओळूं आवै, “क्यां खातर गोडा छोलावता हा म्हे”, तो हांसी री जिग्यां आंख्यां मांय पांणी झबळक आवै।

साची... भीतर सूं घणौ नरम हौ बनवारी। न्यारा होया वीं दिन तौ रोवण ढूकग्यौ। सिंझ्या मोड़ै-सी’क म्हैं गयौ हौ। बारलै कमरै मांय अेकलौ बैठ्यौ हौ— घूंड घाल्यां। ठाह तौ म्हनैं हौ ई। मजाक करली... “न्यांगळ-न्यूंगळ...?” उण कांनी देख्यौ। पांणी सूं हळाबोळ आंख्यां। कांई? म्हारौ भीतर धूजग्यौ। उतावळौ-सो कनै बैठ्यौ। वो खिंडग्यौ... “हूंऽऽऽ हूंऽऽऽ!”

“बावळौ होयग्यौ रेऽऽ। लोगां रा फैसला न्यारा करावै। डील रौ धणी, यार! इंयां रोया करै? न्यारा तौ होया हौ... कांई दूर होयग्या? न्यारी तौ दुनिया होवै। न्यारा नीं होवता, तौ गांव बारकर बाड़ होवती नीं?” म्हैं घणी ताळ तांई सबदां री कारी लगावतौ रैयौ, पण भीतर फाटेड़ै रै कांई कारी लागै?”

बगत भाजतौ रैयौ। कठैई खोज मंड्या... कठैई नीं। च्यार साल होयग्या न्यारा होयां नै। आंगणै बिचाळै री भींत अबार बिंयां ही। कड़्यां-कड़्यां। छोटियै भाई स्योदै रै छोरै राजियै अर बनवारी री छोरी कमलेस रौ ब्याव हौ। जांणै अेक आंगणौ होवै। भांण-भुआ आयी। रिस्तेदार भेळा होया। सगळां नैं लाग्यौ हाल साथै हा बै। टाबर? टाबर तौ बिंयां सोरपाई चावै। टाबर कद भींत चावै?

ब्याव पछै स्योदै रै आंगणै बीनणी आई, तौ दुराजै मांय बड़तां थकां बनवारी रा पग अेकर झिझकौ-सो खावता। वो खंखारौ कर’र आंगणै मांय आवतौ। टाबरां सूं ऊंची आवाज मांय बतळावतौ... जाण’र। भींत सूं परै बीनणी बुहारी काढती... पांणी भरती अर ऊंची आवाज सूं बीनणी अर बनवारी बिचाळै परदौ होय जावतौ। बिंयां बीनणी आयां पछै बनवारी आंगणै मांय कमती रैवतौ। रोटी जीमी अर पार...। अेक बंधण-सो होयग्यौ जांणै। पण फेर भींत नैं ऊंची करण री बात सूं जीभ ताळवै चिप जावती।

सिंझ्या रौ बगत हौ। भींत सारै उठावड़ै चूल्है माथै रोटी बणै ही। बनवारी आयौ। खंखारौ कर्‌यौ अर माचै माथै बैठग्यौ, “रोटी घालद्यौ भई...।” टाबर जीमै हा। ईं आंगणै अर वीं आंगणै। बीनणी भींत सारै धर्‌योटी माट मांय पांणी भरै ही। पल्लौ सरकग्यौ। बिचारी सरमां मरगी। उतावळी-सी हाथ सूं बाल्टी फेंकी अर पल्लौ सांभ्यौ। जीमतां-जीमतां बनवारी री निजर अेकर चकीजी अर ओजूं थाळी मांय टिकगी। देखै सगळा हा, पण कोई कीं नीं बोल्यौ। राजियौ आंगणै बिचाळै खड़्यौ हौ। अचांणचकै पाटग्यौ, “इंयां... ऊंट-सो मूंढौ चक्यां राख्यौ... कीं बहू-बेटी री सरम है कै कोनी?”

हाथ रौ कौर हाथ मांय रैयग्यौ। निजर थाळी मांय चिपगी जांणै। पळकतौ मूंढौ स्याह होयग्यौ। होठ धूज्या अेकर, पण आवाज कोनी निसरी... भीतर मुड़गी। कानां सुण्या बोल काळजै जमग्या। सिंझ्या म्हैं पूग्यौ जद बारै कमरै मांय बैठ्यौ हौ— घूंड घाल्यां।

“बनवारी कांई बात...?”

पण मूंढै बोल कोनी। अेकर म्हारै कांनी देख्यौ। आंख्यां मांय पांणी तिर आयौ अर निजर हेठै झुकगी। स्योदै कठैई गमीतरै माथै हौ। आवतां राजियै नैं रोळा कर्‌या। भाई सूं माफी मांगी। राजियै नैं पगां लगायौ। पण बनवारी तौ जांणै पाथरीजग्यौ। अेक कांनी देखतौ रैवै— टुकर-टुकर। अेक बिंदु माथै देखतौ जावतौ। आंख्यां फाटणै नै होवती तौ निजर सरक’र किणीं दूजै बिंदु माथै जा टिकती।

हनुमानगढ़... बीकानेर... छेकड़ जैपुर जा पूग्या। डाक्टर पर डाक्टर। दवाई पर दवाई, आठूं पौर चूंच राखता, पण होठ कोनी हाल्या। भूख लागती... जीम लेवतौ। नींद आवती... सोय जावतौ। पड़्यां-पड़्यां वजन बधतौ रैयौ... स्यात भीतर रौ ई।

इकांतरै-दूसरै री जिग्यां म्हैं रोज जावण लाग्यौ। म्हनैं आयौ देख बनवारी अेकर कांनी देखतौ पछै वा बात। गांव वाळा चला’र आवता। निसकारौ मार’र सरक जावता। कुण कांई करै?

अेक दिन... मोड़ौ होय रैयौ हौ। म्हैं कमरै मांय बड़्यौ, तौ म्हारै कांनी देख्यौ। डूंगी... और डूंगी आंख्यां...। डूंगै तांई... पांणी पांणी। अचांणचक पांणी री डूंगाई सूं कोई लै’र चकीजी अर देखतां-ई-देखतां टप्पा चढगी, “म्हैं...इस्यौ तौ कोनी...यार!” लै’र किनारै आय’र दुळगी। सुण्यौ तौ म्हारै पांख लागगी। महीनां पछै म्हारौ यार म्हारै साम्हीं हौ। म्हारौ हाथ वीं रै मगरां माथै हौ इब... अर वो टप-टप पिघळै हौ।

वीं दिन म्हैं ब्होत खुस हौ। घरां आयौ तद तांई रात ढळगी ही। पण म्हारै मन मांय उमाव हौ... इब बनवारी ठीक होय जासी।

पण म्हारौ उमाव घणा दिन कोनी रैयौ। बनवारी अबार बिंयां हौ। अलबत कदै-कदास होठ हालता... “म्हैं इस्यौ तौ कोनी यार!”...ईं सूं बेसी कीं नीं। हां... म्हारै सारू अेक कांम लाधग्यौ हौ। रोज बनवारी कनै बैठक करणी अर वीं नैं बिलमावण री कोसीस करणी। भीतर किण ईं खूंणै मांय अेक विस्वास हाल कायम हौ— स्यात बात बण सकै।

“म्हैं इस्यौ तौ कोनी... यार!” का फेर “आ कांई होई बटी...” सूं आगै कोनी बध्यौ बनवारी। म्हारौ विस्वास डिगौ खावण लाग्यौ। छेकड़ म्हैं वीं नैं मजाक मांय लेवण लागग्यौ, “ना... कुण कैवै थूं इस्यौ है?” वो कांन मांड्यां राखतौ जांणै म्हारी बात नैं गोखतौ होवै।

काल सिंझ्या री बात है। वो होठां-ई-होठां मांय की बरड़ावै हौ। म्हैं आयौ तौ कांनी देख्यौ। कुरतै री कालर हटा’र आपरी नाड़ म्हारै साम्हीं कर दी। देख्यौ, लील जम रैयी ही।

“कांई होयौ”, म्हनैं चिंता होयी।

“फांसी लगावै हौ... पण जेवड़ी मुड़दी ही... टूटगी।”

म्हारै समझ मांय कोनी आयी कै कांई कैवूं।

खेत मांय पांणी री बारी ही। फगत राजियै नैं कैवण खातर आयौ हौ, “गाडौ लेय’र आवै तौ म्हारलै घरां कांनीकर ज्याई।”

केई ताळ चुप रैय’र म्हैं बनवारी कांनी देख्यौ। दया-सी आयी। पछै हांसियां मांय ले लियौ, “यार कूंटल पक्कौ डील है...इस्सी जेवड़ी सूं कांई होवै हौ। दो बोरां वाळौ जेवड़ौ ले लेवतौ।”

उण म्हारै कांनी देख्यौ। ठाह नीं कांई हौ बीं री आंख्यां मांय। म्हनैं खुद रै सबदां माथै सरम आयी। पछै केई ताळ तांई म्हैं वीं नैं समझावतौ रैयौ। राजियै नैं हेलौ मार्‌यौ अर घरां आयग्यौ।

पांणी री बारी हाल खतम होयी कोनी ही। बडै झांझरकै राजियै सूं छोटियौ खेत पूग लियौ। ऊपर सांसां। “ताऊ... फांसी खाय ली।” कैय’र रोवण ढूकग्यौ। म्हारै हाथ सूं कस्सी छूटगी। स्योदौ... राजियौ... सैंग रोवै हा। म्हैं... म्हैं जड़ खड़्यौ हौ।

अबार... स्योदै गाडौ जोड़्यौ है। म्हे सगळा गाडै माथै हां। पांवडै-पांवडै गांव नेड़ौ आवण लागर्‌यौ है। गांव में बड़तां घर आसी। बनवारी रौ घर... अर घरां...? म्हैं... म्हैं स्योदै कांनी देखूं। स्योदौ चुप है। राजियौ चुप है। म्हैं... म्हैं चुप हूं। बता कोनी सकूं रात वाळी बात। पण... भीतर कोई है... जकौ बांग मारै— बनवारी नैं कुण मार्‌यौ... म्हैं कै राजियै?”

स्रोत
  • पोथी : साखीणी कथावां ,
  • सिरजक : पूरण शर्मा ‘पूरण’ ,
  • संपादक : मालचन्द तिवाड़ी/भरत ओळा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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