पगडंडी सड़कां में गुमगी, खेत बिखरग्या थाळां में।
कुआ, बावड़ी सगळा सूक्या, नीर न नंदी नाळां में॥
सांची खै’ता पंच-पटेल्या, डूब्या भायलचारी में।
टीवी, बीवी संग भरमाया, कुण बैठै चौपालां में॥
गोपालक गौचर नैं जीम्या, गाय फिरैं कूड़ौ करती।
बंजड़, धोरा जमीं माफिया, हड़प्या काळ-दुकाळां में॥
रामैं, कांकड़ धुन अलगौजा, गमी समय का फेरा में।
झांझ-मंजीरा, ढफ की थपकी, कठै गाँव की गाळां में॥
आमदणी आना की कोनै, फुरसत कोनै मरबा की।
बूढा, टाबर, लोग, लुगाई, मस्त दिखावा, चाळां में॥
आंख गड़ायी भायो, भाभी, पापा, मम्मी अ’र दीदी।
निकळ सकै ना दिनभर उळझैं, इंटरनैटी जाळां में॥
मत ‘कल्याण’ दुखी व्है मन में, जनता सै क्यूं जाणैं छै।
आंत फाड़ सैं क्यूं काढैली, जो लूट्यो घोटाळां में॥