छाबा लाग्या बादळ काळा मन कै भीतर।

सबका गेला नाळा-नाळा मन कै भीतर।

खा कचकची बाथ भरी असी जोर सूं थांनै,

ज्यूं बखरी मोत्यां की माळा मन कै भीतर।

आंसू की लारां छलकी यूं ओळ्यूं थांकी,

टूट्या जद भावां का ताळा मन कै भीतर।

धरम अरथ काम लोभ का खूण्यां छै देह में,

सगळा बण्या माकड़ जाळा मन कै भीतर।

खूब कटारियां घसी थनैं तिरछी नज़र सूं,

रोक पाई यानै ढालां मन कै भीतर।

घणी गलगल्यां करी थांनै म्हांका तन पै,

कर पाई म्हांका चाळा मन कै भीतर।

तूं झांकै म्हारा आड़ी तो कांई हुयो,

घणा छै म्हई च्हाबा वाळा मन कै भीतर।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : शिवचरण सेन ‘शिवा’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : मरुभूमि शोध संस्थान (राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़)