फुलबाड़यां की ज्यान छै, कानीर की कळ्यां।

मन सूं मैरबान छै, कनीर की कळ्यां।

जीं दिन सूं छूट्यो म्हांको, बागां आबो जाबो,

सूनी छै बेरान छै, कनीर की कळ्यां।

म्हां सूं पूछी, अेकदम खुलगी पसब बणगी,

अतनी बेईमान छै कनीर की कळ्यां।

यूं तो नजर्‌यां धूंधली, लट्टयां उजळी होगी,

पण मोट्यार जवान छै, कनीर की कळ्यां।

दमना क्यूं छोड'ज़ थांकै घर अेक भो नहीं,

अर म्हां कै मतमान छै, कनीर की कळ्यां।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत मई 1982 ,
  • सिरजक : प्रेम जी प्रेम ,
  • संपादक : चन्द्रदान चारण ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भासा साहित्य संगम अकादमी बीकानेर
जुड़्योड़ा विसै