बन में बोलै मोर,
ढोला जी थे तो निकळ्या जी चित्तचोर

चित्त ने चुराय’र परदेस पधार्‌या।
मैला-गाभा, जियां उतार्‌या
कठई न कोई ठोर॥
ढोला जी थे तो निकळ्या जी चित्तचोर॥

कुरळाई कुरजाँ सुण कोनी पाया,
ईयां—कियां थे म्हानै बिसराया।
हिवड़ै उठी है हिलोर॥

मन कोनी लागै म्हारो मन कोनी लागै।
सांवळी—सूरत थां री, आँख्याँ में जागै।
चाले न कोई जोर॥
साज—सिंणगार अब, कुण नै सुहावै।

थां बिना जीवण जियौ कोनी जावै।
दुनिया घणी जी कठोर,
ढोला जी थे तो निकळ्या जी चित्तचोर॥
स्रोत
  • पोथी : जागती जोत फरवरी-मार्च ,
  • सिरजक : श्रीमती पूजाश्री ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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