कतना दन धीर धरूं

कुणको बिसवास करूं

टूटी पतवार म्हूं—

कद तांई सामी धार तरूँ

चांदी सी चांदणी भी चटकाबै मन।

काट्याँ सूँ कटै लोह्या का दन

स्वात बिना सीपी छै रीती

कळ्याँ ओस बिन लाई पीती

आधी आस अधूरी रैगी

नितको फाट्यो-नितकै सींती

चालणी की नाई होगी

रूंखाँ की छाया भी

कद धोखो दे जावै

या नमळी काया भी

फूलाँ का बाग,

होता देख्या छै-बन॥

काट्यां सूं कटै न॥

छळ को राज कपट की नीती

देता फिरै तसल्ली रीती

आसोजी हाळी ज्यूं तप-तप

दुबळी पड़गी आज परीती

स्वारथ की काई पै—

नैतिकता रपट रही

छळ-छदम की चील्हां

मनख्या पै झपट रही

पाड़ौसी बगुला बण करता भजन॥

काट्यां सूं कटै न॥

कण-कण में भगवान यहाँ, पण

जण-जण में ऊंको बासो

मंदिर-मस्जिद जादा महगा

मनख काटबो खेल तमाशो

चंदण की डाळ-डाळ

सांपां को पहरो छै

कालबेल्यो हार गयो—

यो कळैश गहरो छै

जामण को चीर, हुयो पूत को कफन॥

काट्या सूं कटै न॥

ये उपदेश सुणाँ कद बांई—

के दन और भूख का काटां

हाथां काम पेटां-रोटी

धर्म धजा ने कांई चाटां

बोहरा बसवास अर—

कद तांई-वादा

सुर साधवो भी अब—

मुश्किल छै-दादा!

समदर ने सीख देगो, एक दन लखन॥

काट्यां सूं कटै लोह्या का दन॥

स्रोत
  • पोथी : ओळमो ,
  • सिरजक : मुकुट मणिराज ,
  • प्रकाशक : जन साहित्य मंच, सुल्तानपुर (कोटा राजस्थान) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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