सीपी, पाळ पेट में मोती

गूंगी मरण बुलावैं क्यूं

रवै जीवती परख जगत री

तो मरणूं जीणूं है

विधा काळजो कंठां बंधसी

जद मोती लाखीणूं है

कूल उजाळूंली मैं थारी

समदर तूं अकुळावै क्यूं?

चन्नण सौरम वसा प्राण में

सूखा हाड घसावैं क्यूं

रगड़ धापज्या गुण नीवड़ै

तो पिसणूं हंसणूं है

कंचन काया घसा मनै तो

प्रभू लिलाड़ पर बसणूं है

जस फैलास्यू जामण थारो

धरती तूं पिसतावै क्यूं?

दिवला ले'र पराई चिन्ता

हिवड़ो रोज दझावै क्यूं

नहीं निछतरी भौम, अन्धेरो

जाणै तो के बळणूं है

नेह पियो तो जोत नैण रीं

बण कर मनै उपड़णूं है!

कारज सारू जलम सुधारूं

बाती तूं घवरावै क्यूं

सीपी, पाळ पेट में मोती

गूंगी मरण बुलावै क्यूं?

स्रोत
  • सिरजक : कन्हैया लाल सेठिया ,
  • संपादक : रावत सारस्वत ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य संगम (अकादमी) बीकानेर
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