लांघ रही खेताँ की मेर,
बदगी डाळा च्यारूँ मेर,
सरस्यूँ घालै डील
जवानी जड़ र्ही छै,
मार ऊमर की पड़ र्ही छै,
थाँ सूता खूँटी ताण
अजी थाँ बाप हो’र अणजाण॥
आगै—पाछै की सूझै न्हँ मन सम्भळ्याँ न्ह सम्भळै,
काम करै छै अणहोता जे बरजै ऊँ पै उखळै,
बाळपणो कट गयो कदी को अब अल्हजड़पण उदळै
डाळ मरोड़ा खा र्ही छै।
ऊमर माथो न्हा र्ही छै।
अब अखरै बंध—बंधाण, अजी थां बाप...
साड़ी पहर्यां पाछै लागै अंग-अंग मौखम छै,
नखरा मूंडै बोलै हिवड़ै हर्यो भर्यो जोखम छै,
आँख्यां सूँ बाताँ करती या समझ भरी सौरम छै,
सरस्यूँ फूलां आ र्ही छै।
जोबण में गंधा र्ही छै।
या होगी, छाती—स्वांण, अजी थां बाप...
जे देखै जे ऊमर ठीणै लाज्या मारी मरगी,
मुनीजी की मून छुड़ातां काक्यां—भाभ्यां थकगी,
मन ढूँढै नौ रेखा सावो तन सूँ लडवण बणगी,
आस जन्तरी बण र्ही छै।
हीर टपोर्या गण र्ही छै।
म्हैन्डा का द्यो पकवान, अजी थां बाप...