चेत महिने गरमास चेती, धरा देती धूप।

लावणी करबा लोग लागा, किया आणंद कूप॥

बैसाख तांई छड़ी बिछड़ी, जांण ग्रीखम जोग।

दौपार तावड़ देख दरखत, लहे सरणो लोग॥

बैसाख आधो इयां बीत्यौ, तपत लागी तांण।

भास्कर तप धरती बिलोके, सनेही कर सहनांण॥

बैखाख रातां चांनणी बस, मुद्द बिरहण मूक।

बाबहियो पिव बोल बाणी, करा देवे कूक॥

ताकता तावड़ होत तकड़ो, सकी ग्रीखम साख।

इण तरे कर कर धरा ऊपर, बीतीयो बैसाख॥

तावड़ो करता सहन तड़फे, पंथ झड़पे प्रांण।

बिकराळ तपती जेठ भारी, हुवै त्यारी हांण॥

सरवरां जीवां नीर सूखा, पशु भूखा पान।

लोगड़ा भोजन खाय लूखा, धणी रुखा धान॥

सहन करता थाकिया सारा, रवि हंदी रीस।

बेहाल अरू नर हुवा व्याकुल, ऊबवे अवनीस॥

छानड़ी ग्रीखम भली छाजै, तपत थौड़ी ताय।

हवेली बिच धनवान हूता, रटत राम खुदाय॥

दौपार सूना इसा दीखे, पथ गवाड़ां पार।

अध रात पौ री जेम आभा, पेख जेठ दुपार॥

धौलपुर नगरी गरम धधके, निजर बीकानेर।

जौधांण सीकर तपत जबरी, महत जैसळमेर।

मारगां चलणो भोत मुसकल, पड़े खतरे प्रांण।

बिकराळ लू दिन रात बाजै, थिरा राजस्थांण॥

जातरी रसतो छोड़ जावे, छिपै दरखत छांव।

रजथान लूवां लगी रमवा, घाले मिनखां घाव॥

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत जून 1987 ,
  • सिरजक : लक्ष्मणदान कविया ,
  • संपादक : चन्द्रदान चारण ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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