गांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै।

संगी साथी न्यारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥

बोझ बढ्यो बचपन छूट्यो, घर बार पलक में छोड़ दियो,

दो पीसा की खातिर म्हे, शहरां सूं नातो जोड़ लियो।

शहरा कै ईं मकड़जाळ नै, म्हे तो समझ नहीं पाया,

घणा-घणा उळझ्यां हां जद भी, बारै आणू म्हे चाया।

खेल तमाशा सारा छूट्या, अेक पेट के कारणै।

गांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥

छूट गया सब कैर कुमठिया, काचर बोर मतीरा रे,

छूट गयो मां को खीचड़लो आटै वाली खीरां रे।

अब तो कदै-कदै ही जाणो, होवे म्हां सूं गांव में,

याद घणी आवै मा, बीत्यो,बचपन बीं की छांव में।

मा का शक्करपारा छूटया, अेक पेट के कारणै।

गांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥

चढ़-चढ़ खाता गूंद खेजड़्यां, को, म्हे खुल्ला घूमता,

दोपारी में बड़ पीपळ का, म्हे टिकटोळ्यां चूमता।

बाजरिया रो मोरण खाता, खेजड़ियां री छांव में,

बिरखा मांय बणाता हिलमिल, कागदिया री नाव म्हे।

अे सब शौक विचारा छूट्या, अेक पेट के कारणै।

गांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥

स्रोत
  • सिरजक : धनराज दाधीच ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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