रात अँधेरी कट के रहसी!

धन-घरती अब बँट के रहसी!!

भूखी जनता चुप कद रहसी?

जोर जुलम अब घट के रहसी!!

मँहगाई अब मौत बराबर, मरै भूख सूं नाना टाबर,

चोरां रो दिल कदै हालै, बात कराँ तो कंठो झालै!

ताळा कूंची भीतर काँई, जाणाँ प्राणाँ री परछाँई,

अै दिन भी अब राम दिखावै, मुरदां रा कुण दाम बणावै?

देखो हाथ, हाथ नै खावै,

हाँसे सेठ, मिनख मर जावै!

अब गरीबी डट के रहसी!

धन-धरती अब बँट के रहसी!!

मजदूराँ पर गोळी चालै, मिल-मालिक छाती नै सालै,

चोर धान पूरो क्यूं तोलै, रखवाळा भी आज बोलै!

घर में रोटी साग भाजी, चूसा खावै कल्लाबाजी!!

तिरस्या डाँगर जान गँमावै, पाणी ने भी अै तरसावै!

चुगटी चून मिलै ना चारो,

अब तो मँडग्यो मरणो म्हारो!

आज अँधेरो छँट के रहसी!

धन-धरती अब बँट के रहसी!!

खेत सूखग्या, दाणा बळग्या, भूखाँ रा कागळिया गळग्या।

बादळ आता-आता टळग्या, विपदा में ठाकुरजी छळग्या।

अब तो हाथाँ में जेळी रे, मौत-क्रांति बैठी भेळी रे,

लोग चुणै ना सीधो गैलो, वार पड़ै ना, बळ रो पैलो!

बिना बात कीड़ी क्यूं मारै,

पण मरतो कद तईं बिचारै?

भेद-भाब अब हट के रहसी!

धन-धरती अब बॅंट के रहसी!!

भूख गरीबी अर बीमारी, मिलै ग़रीबां नै क्यूं सारी,

मोटा माणस मौज मनावै, मोटी-मोटी तनखा पावै!

छोटा नै हरदम घुड़कावै, कोठ्याँ में टाटा लगवावै,

पण बाबू जद घर नै आवै, पड़ै तावड़ो पग बळ जावै!

हाय गरीबी ग़जब दिखावै,

हाड-पाँसळा सै दुख पावै!

नींद घणी अब कट के रहसी!

धन-धरती अब बँट के रहसी!!

जुलमी जुलम घणो मत करिये, जनता सूं डरतो ही रहिये!

जनता जद तक भोळी-ढाळी, तू कूदै है डाळी-डाळी।

पण भोळाँ ने समझ पड़ैली, फिर तो थारी नहीं चलैली,

तू कुमौत ही मर जावैलो, टाबरियाँ नै बिलखावैलो!

क्यूं नी अब सूँ चादर ताणै,

बदल्यै जुग री बात पिछाणै!

जुग-जीवण अब सट के रहसी!

धन-धरती अब बँट के रहसी!!

चाहे कितणो जोर लगाले, धन पर कितणी म्होर लगाले!

ऊँचा-ऊँचा महल चिणाले, मरै जिकाँ ने खूब जिमाले!

लाँबी-लाँबी भींत उठाले, पहरै पर पहरो लगवाले,

चक्कू छरी तेज करवाले, दारू री बोतल गटकाले!

जुग पलट्यो या बात भुलाले,

चापळूस बण बात बणाले!

पण अै बेड़ी कटके रहसी!

धन-धरती अब बँट के रहसी!!

स्रोत
  • पोथी : सैनाणी री जागी जोत ,
  • सिरजक : मेघराज मुकुल ,
  • प्रकाशक : अनुपम प्रकाशन जयपुर
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