सावण को अंधो चैते बैसाख बरसतो देख।
झकर्यां फूटतो छापर हर्यो—भर्यो ऊ लेख।
दन के पाछे रात गांठड़ी बाँध अंधेरो लावै
काळी कामळ न्ह पसारती जगती पेछा जावै
रात—दनां की आव जाव में काळ सरकतो जावै
सूरजड़ो मशाल लेकर उदयगिर सूँ आ जावै
उजळा पै आंथूणी काळी आंधी काळो लेप...॥
धरती टक्या न जे पग धरती की गत कांई जाणै
कुस कांटा की टीस कांई होवै छै, न्हँ पछाणै
कुनबा का छपरा छानै के नरनारी को टेको
जनम—मरण बीचै की जातरा दोनी पग को टेको
पैली पतझड़ भुगतै तो पाछै बहार भी देख...॥