हेली, बाज रही शै’नाई।

थनै क्यूं नी पड़ी सुणाई॥

खोल किंवड़िया मंदर की थूं, भीतर नैं आजाजे।

गरभ बिराजी मूरत नैं थूं, नैणां मांय रमाजे।

धुन सूं धुन मिल जावैली जद, अंतस अणहद बाजे।

सुरतां सुर भर कर गावेली, हिंवड़े में हरसाई॥

बाजे हर पल मंदरी-मंदरी, ध्यान लगाकर सुणजे।

ताल मिला अपणी सांसां सूं, धुन री तांतां धुणजे।

कानां में रस घुळ जावैलो, सबद सबद नैं गुणजे।

रोम-रोम में यूं रम जासी, ज्यूं रस नंद्यां न्हाई॥

नहीं अघावै जीसूं भूंरो, बस सुणबा नैं तरसे।

आणंद री झणकार उठै तो हिवड़ो हरदम हरसे।

रीझै जीव नैंण भी भीजै, जद अमरित रस बरसे।

भरम भरी भमगी भव मांही, बिरथा उमर गंवाई॥

स्रोत
  • पोथी : बिणजारो 2017 ,
  • सिरजक : कैलाश मंडेला ,
  • संपादक : नागराज शर्मा ,
  • प्रकाशक : बिणजारो प्रकाशन पिलानी ,
  • संस्करण : अङतीसवां
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