रईने केनु बोले रे, केवड़ा नो नाले हूरज उगोरे।

जागो म्हारी माता हूरज उगोरे।

बापा म्हारा पांस पोटिड़ा आवे रे।

बापा म्हारा हिना ना पाटी भरिया रे।

डिकरी म्हारी लगनां ना भरिया रे।

बापा म्हारा लगनां हिमे कामे आवे रे।

डिकरी म्हारी नानरिये परणे रे।

केवडा नी नाले हूरज उगोरे।

डिकरी म्हारी लगनां विने कामे आवे रे।

बापा म्हारा पास पोटिड़ा भरिया रे।

बापा म्हारा हुएं माल भरिया रे।

डिकरी म्हारी पोटिलीना भरिया रे।

डिकरी म्हारी पड़ला ना भरिया रे।

बापा म्हारा पोटीली हिने कामे आवे रे।

डिकरी म्हारी कलजुग में नानरिये परणे रे।

डिकरी म्हारी वीने कामे आवे रे।

फसल गीत :-

भील जीवन में फसल ही महत्वपूर्ण मानी जाती है। फसल बोने से लेकर उसे भंडार में भरने तक का कार्य जीवन के चक्र से जुड़ा रहता है। इस प्रकार के गीत महाराष्ट्र के लोक गीतों में भी मिलते हैं। एक गीत जिसमें मराटी बहु को पीहर जाना है, वह जाने की जिद करती है। सास उसे समझाती है कि करेले का बीज बो दे फिर चली जाना। वह बीज करेले के रूप में बनकर उसे खा लेने तक का कम गीत में चलता रहता है तब वह पीहर जा पाती है।

इस भील गीत में भी बहु पीहर जाने के लिए कहती है और उसे कहा जाता है कि मक्का, गेहूं, ज्वार सभी अनाज खत्म हो गया है, अत: इसे पीहर भेज दो। भीलों की गरीबी का इस गीत से पता चलता है। नव विवाहिता बहु को वे अपनी गरीबी का एहसास होवे ऐसा नहीं चाहते अत: उसे पीहर भेज देते हैं।

गीत का भावपक्ष— भील बहु सास से कहती है कि मुझे पिहर की याद रही है अत: मुझे पीहर भेज दो। सास ससुर से कहती है कि घर का अनाज खत्म हो गया है अत: बहु को पीहर पहुंचा दो।

स्रोत
  • पोथी : भील संगीत और विवेचन ,
  • सिरजक : अज्ञात ,
  • संपादक : मालिनी काले ,
  • प्रकाशक : हिमांशु पब्लिकेशन्स (उदयपुर) ,
  • संस्करण : द्वीतीय संस्करण
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