लोकतंत्र आयो भलो, म्हारै भारत देस।
परजा रा सेवक करै, मालक बण उपदेस॥1॥
जोड़ सभा बोल्या घणा, लेख दिया छपवाय।
जनसेवा रो काम के, इण सूं ओर सिवाय॥2॥
राजा अर ठाकर गया, दे परजा नैं राज।
सूनो खेत चरै खड़्या, पण नेता ये आज॥3॥
हंसा तो सरवर गया, सूवा डूंगर मांय।
नकली नेता कागला, करै कुरांय-कुरांय॥4॥
नेता ही नेता फिरै, च्यारूंमेर अनेक।
परजा रै सिर भार यो, कुण राखै अब टेक॥5॥
चेला चंदो मांग कर, करै गुरां री भेंट।
राख रखावै पत गणी, लेवै सार समेट॥6॥
धिक खेती, धिक चाकरी, धिक-धिक बणिज बोहार।
सळियौ लागै आज तो, चंदै रो रूजगार॥7॥
स्याणा सगळी जात रा, करल्यो सार उपाय।
नेता बण कर धाड़वी, गयो गांव में आय॥8॥
नेतो आयो नगर में, दिया कई वरदान।
पाछो फिर देख्यो नहीं, पळ में अन्तरधान॥9॥
परजा तरसै नाज नै, पड़ै तिंवाळा खाय।
मंत्री दुरभख काळ में, कोठी ली चिणवाय॥10॥
बादळ वरस्यां मींडका, दिन-दिन बधै सिवाय।
पण चमचां री सेन तो, पल-पल बधती जाय॥11॥
मंत्री अर चमचो खड़्या, किण रा पूजूं पाय।
चमचै रा ल्यूं वारणा, मंत्री दियो मिलाय॥12॥
नां नेतो, मंत्री नहीं, नां अफसर रो नाम।
असर् या सारै काज पण, यो चमचो सरणाम॥13॥
गोरां रं गुर-ग्यान में, गरबै भारत देस।
वालमीक अर व्यास रो, कुण सुणसी संदेस॥14॥
मुनिवर अर व्यास आसीस द्यो, रोम-रोम पुळाकाय।
ग्यान उपावण लाल यो, आज विलायत जाय॥15॥
नां हिरदै में च्यानणो, नां माथै में ग्यान।
विद्या रो पट्टो लियां, बण्या फिरै विद्वान॥16॥
सूरज रो उगयो सुण्यो, घूघू हुयो उदास।
अधियारो संसार में, ब तो रसमी रास॥17॥
गोरां रै गुर-ग्यान रो, आछी पकड़ी चाल।
विद्या रै मंदर करा, भगतां मिल हड़ताल॥18॥
जठै नेह रो नांव नां, नां विनय रो साज।
सरकारी दफ्तर जिसा, विद्या-मंदिर आज॥19॥
जोत गई, काया थकी, धोळा हुयगा केस।
देखो, जोध-जुवान ये, दीपै भारत देस॥20॥
बणै चोपणो पुरख यो, परण्यां पछै जरूर।
पण साथै ही चतुरभुज, क्यूं न बणै गुण-पूर।॥21॥
थोड़ी सी तनखा मिलै, दो टाबर, दो आप।
नित-नित नई उमंग री, किण विध उतरै ताप॥22॥
विद्या-बळ, गौरव-गरव, मालक आगै मात।
के नौकर री आवरू, के नौकर री जात॥23॥
मालक री मरजी बुरी, अर नौकर रो पेट।
यूं आयो, यूं ही गयो, यो पंछी अळसेट॥24॥
तड़फै पंछी पींजरै, के करले पण पांख।
हिरदो जीरण चीर सो, फीकी-नीची आंख॥25॥
सायर सांचो कथ गया, जिंदगानी रो सार।
परवत चढणो तावड़ै, लेकर सिर पर भार॥26॥
मंहगाई री मुलक मैं, बधती जावै आंच।
बहू सपूती सुलखणी, पोता जण दिया पांच॥27॥
पहली तो वासण लिया, चोट मांयली मार।
अब मंहगाई कोप कर, गाभा लिया उतार॥28॥
पेटी नैं काठी करो, राखो प्राण ल्हकोय।
अब यो बेटो बैद रो, गयो डाकटर होय॥29॥
बिना ताल-सुर गीत अर, उच्छव बिना मुछाह।
आरज-कुळ में आज दिन, यो बेटी रो ब्याह॥30॥
बिकरो तो बधतो भली चढतो भलो बजार।
वोट बिकै, विद्या बिकै बेटा बिकै खराळ॥31॥
साध कमावै ब्याज अब, पंडत बेचै पुन्न।
चांदी रो चक्कर चल्यो, सार सनातन सुन्न॥32॥
काळै धन रो रात-दिन उफणै संमद अपार।
धरमी—धरमी डूबगा, पापी उतर्या पार॥33॥
भीतर—बाहर बात दो, कळ जुग रो व्यापार।
काळो—धोळो एक में, चालै आज बजार॥34॥
चांदी रो नाळो बगै, बीचूं—बीच बजार।
तिरता—तिरता डूबगा, लोक कई मझधार॥35॥
चतराई पण कंवर री, नांय बखाणी जाय।
चांदी बेचर ‘स्टील’ रा, वासण लिया मुलाय॥36॥
पढणो ओर पढावणो, लिखणो अर उपदेस।
पीसै रै लारै फिरै, अब तो सारो देस॥37॥
दया—रूप विद्या—बळी, संत गया सुरधाम।
अब तो गादी पर तपै मठाधीस सरणाम॥38॥
भेख पूजता आगला, म्हे पूजां अब नाम।
घिरत बोल कर तेल सूं, असर्या सारां काम॥39॥
चाखण नैं चांदी नहीं, सीधा कर दिया हाथ।
सोनो तो संसार सूं, गयो करण र साथ॥40॥
कुण सो करसी हंस अब, नीर-छीर रो न्याव।
पाणी दूध मिलाय कर, जण पीवै सुध-भाव॥41॥
वेतन भत्ता मोकळा, भांत-भांत रा भोग।
सरकारी अफसर चढ्यो, परजा रै सिर रोग॥42॥
साळां रा करतब सुण्या, कर्या विरंगा साज।
साळै रा साळा करै, अब दफतर में राज॥43॥
कागद रा हथियार ले, कागद रा मोट्यार।
दफतर में बैठ्या कैर, चांदी रो व्यापार॥44॥
यो कुत्तो परदेस रो, झाबर-झोला बाळ।
लाड लडावै मोद में, ज्यूं गोदी रो लाल॥45॥
बुगलो बण कर हंस अब, मोद मनावै खूब।
दारू रै दरियाव में, रमतो-रमतो डूब॥46॥
गोरा साब गया घरां, सारो साज समेट।
करगा काळा साब पण, वै भारत री मेंट॥47॥
बोली भेख बिचार बुध, सै परदेसी साज।
लागै काळे साब रै, क्यूं भारत री लाज॥48॥
बारठ जी खेती करै, हळ सूं हेत लगाय।
सुरसत रो परसाद पण बेच—बेच नां खाय॥49॥
गाभा धोळा नैण रंग, लामां—लामां केस।
आज कवी रो रूप भल, दीपै म्हारै देस॥50॥
हरद बिना दुखड़ो घणो, उच्छव बिना उछाह।
पण कविवर नैं लोक में, गळो पुजावै वाह॥51॥
‘बात’ कदे बांची नहीं, सुण्यो न कोई ‘गीत’।
राजस्थानी काव्य री, के जाणै यो रीत॥52॥
राजस्थानी काव्य री, कीरत बधती जाय।
‘हरिरस’ पीवण हार कवि, मद पीवै हरखाय॥53॥
‘कविता लेवो, लेखल्यो, लेवो कथा अपार।
कळजुग रा विद्वान कवि, बेचै बीच बजार॥54॥
हाट कमावै बाणियो खेत कमावै जाट।
जस गावै जजमान रो, कवी नहीं, बो भाट॥55॥
आगै कवि सनमान सूं, पाता लाख पसाव।
भरी सभा लटका करै, कळजुग रा कवि-राव॥56॥
सेठां थरपी ब्याव में, नई रीत कर चाव।
कवियां रो मेळो रच्यो, सुगणो सस्तै भाव॥57॥
फैसन री बरखा हुई, माच्यो आछ्यो कीच।
घर री लिछमी बण परी, उडै बजारां बीच॥58॥
लामी करी मुसाफरी, फैसन में लौलीन।
ऊपर ऊजळ-धोळिया, भीतर काणां तीन॥59॥
पिव रै रस में आ रमी, धण छोड्या मा-बाप।
धण रै रस में आ रम्या, पिव छोड्या मा-बाप।॥60॥
साजन चाल्या स्हैल नैं, गोरी पकड़्यो हाथ।
ठहरो, घड़ीयक चालस्यां, आज सिनेमा साथ॥61॥
दुरगादास प्रताप तो, दिया चित्त सूं टार।
युवकां रा ‘हिरो’ हुया, आज सिनेमा स्टार॥62॥
सिघां साथै सिंघणी, खूब दिखाती हाथ।
जोड़ायत अब ‘मेम’ बण, जाय सिनेमा साथ॥63॥
अणगिणती ‘परताप’ अब रजपूतां रै नांय।
नांव-गांव में के पड़्यो, जोत मातरा मांय॥64॥
जाय अजबघर देखल्यो, सोवै घणी नचीत।
वीरां री तरवार रो, गयो जमानो बीत॥65॥
कळ सूं तो खेती हुई, कळ सूं सोरयोड़े माज।
कल सूं खायो कळ बण्यो, यो कळजुग रो साज॥66॥
पंचभूत बस में कर्या, मन में घणो गुमान।
पल में परळै ऊतरै, यो गोरां रो ग्यान॥67॥
जग नै जीवण—दान दे, नित पूरब री जोत।
ले पच्छिम रो च्यानणो, भलो उजाळ्यो गोत॥68॥
क्यूं आया भूरा अठै, रूप-रंग पर भूल।
रस—सोरम रो नांम नां ये कागद रा फूल॥69॥
पिरथी री तो पीड़ सा, दी विग्यानो मेट।
चंद्रलोक नै पुन्न री, ले चाल्यो अब भेंट॥70॥
चंदरमां में जा रम्या, ये कळजुग रा लोग।
घूळ पड़ी पल्लै खरी, नां इमरत रस भोग॥71॥
गीत पुराणा, दिन नयो, कविवर करो न भूल।
सारद रै चरणां चढै, कदे न बासी फूल॥72॥