बिरखा ओळा घणै बेग सूं, चढ़ चालै जद पून बिवाण।

रोही कांपै, खेती धूजै, आवै फांफां, बे परवाण॥

ढांडा बिलखै, ढूंढा तिड़कै, पड़ै पंखेरू हो विद्रूप।

रावण सो जद अट्टहास कर, सूंटो प्रगटै असली रूप॥

ताती-सीळी पून घुळै अर, नभ में हो जद तगड़ो ताप।

तरळाई तगड़ी हो मिलज्या, सूंटो रूप धरै झट आप॥

कुदरत री काया में मानो, भाव-गोट सूं लगै भचीड़।

काया कांपै कोप बिचरज्या, जड़-जंगम रै पड़ै फदीड़॥

पून आपरै घोड़ै चढ़कै, चाल पड़ै जद पूरै बेग।

सूंसाटो मांचै चौफेरी, झन्णावै ज्यूं तीखी तेग॥

पून-वेग यो सूंटो बाजै, भागै दोड़ै बेपरवाण।

ढूंढ़ा गेरै, खेती भेळै, तोड़-फोड़ री सही पिछाण॥

घोर अंधेरो, बिजळी चिमकै, ढोल गुड़ै ज्यूं हो अरड़ाट।

धरती रो कण कण थर्‌रावै सूंसाटो मांचै घर्‌राट॥

सूंटो इण घड़ियां में मुळकै, रूप धरै अपणों बिकराळ।

फांफां में फंसगो सो मरगो, पून रूप यो दूजो काळ॥

पून गोट जद बंधै जोरको, सूंसावै उपड़ै सरणाट।

उण घड़ियां में सूंटो जामै, चाल पड़ै करतो बरणाट॥

पाछो मुड़नो, ठोड़ ठैरणो, झुकणो, रुकणो नीं जाणै।

सांमी आयां ठोड़ पछाड़ै, दया दिखाणो नीं जाणै॥

सूंटै रो सरूप कुण बरणै, कुण मांडै ईं रो चितराम।

सूंसाणो, सरणाटै जाणो, रूपहीण निरभीक निकाम॥

परळै रूपी जबरो झाळी, निरमोही पंछ्यां रो काळ।

घणो कुकर्‌मी, राखस धर्‌मी, बेमोकै आणो विकराळ॥

मूसळधार पड़ै जद बिरखा, उण सूं मिलज्या सूंटो आय।

जांणै जरख चढ़ी हो डाकण, थावर मिलज्या सांमी जाय॥

काचा-काचा गिण-गिण खावै, निरबळ-ढूंढ़ा हो चौसार।

झांपां में आगा सो चाल्या, ओझा, बूझा सै बेकार॥

नष्ट-भ्रष्ट करबा नै चाली, लंका में उणनचास पून।

सूंटो भी बिण में ही होसी, कुण बतावै सगळा मून॥

पण देखां सूंटै रा लक्खण, तो आवै मन में बिस्वास।

यो जूझ्यो है बीच खेत में, बाळ-जाळ के करदी नास॥

स्रोत
  • पोथी : सूंटो ,
  • सिरजक : उदयवीर शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य समिति, बिसाऊ
जुड़्योड़ा विसै