ढाब्यां ढबै काळ-गत, प्रभु-पथ प्रवृत फकीर।

कवि उर आखर, सरित-जल, ह्रदय-पीर, दृग-नीर॥१॥

जूना आथर जूण रा, दिन दिन खुसता जाय।

कारी लगै कुड़तियै, टांकौ झिलै काय॥२॥

जूण किती! जोखी जुगां, ब़रस, मास अर दिन्न।

निकळी तो नैनी इती, सांस बरोबर छिन्न॥३॥

धर धूजै नभ थरथरै, साबत गिटज्या सीम।

सकल काळ रै गाळ में, गमग्या बादर भीम॥४॥

सांसां जितरै आस है, आसा जितरै नेह।

जीवै जितरै जीव है, दीसै जितरै देह॥५॥

जीव तिहारौ जूण में, कुजब दोगलौ खेल।

आवै ढोल हबीड़तौ, जावै ठूंठा ठेल॥६॥

दीवट जिम देही जरै, अंतस तम रौ वास।

त्रिस्नावां तूठत नहीं, जब लग घट में श्वास॥७॥

नीत कुटळ नीयत विटळ, भ्रमित जीव भटकान।

मझ माया मुख मारियां, सोझी बचै शान॥८॥

दुनिया मति अंध है, मन मतंग इतराय।

जानत पण मानत नहीं, पंक पजी गुर्राय॥९॥

रळ्यां रईसी राख में, खेह् उडसी खैंखाट।

ठूंठां ठिड़सी ठाकरां, ठरका ठाट ॥१०॥

अलख अनश्वर नेह रख, नश्वर सूं क्या नेह।

अपणा जाया होमसी, दिन खूट्यां देह॥११॥

सखरी सीख सुमाणसां, सखरौ स्नेह सुमीत।

सखरी संगत सज्जनां, श्रीहरि सूंप सुनीत॥१२॥

उथ उड़जा रे मन विहग, अणहद जेथ उजास।

पिंजर छोड्यां प्राणिया, मिळसी मुगताकास॥१३॥

स्रोत
  • पोथी : कवि रै हाथां चुणियोड़ी ,
  • सिरजक : नवल जोशी ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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