इक घटना जमरूद की, केशव लिखियत सोय।

कैसे सेवक होवते, कैसे स्वामी होय॥

दुरगदास भट एक दिन, गो करिवे आखेट।

अधिक श्रमित निद्रित भयो, सघन सु बिरवा हेट॥

अकस्मात् नृप गये, द्वै जन तें भट पास।

देख्यो निद्रा गोद में, है यह दुरगादास॥

लखि दुरगा के बदन पै, गिरत धूप प्रतिबिम्ब।

छांह करिय रूमाल की, नृप करिय विलम्ब॥

कहिय साथ के सेवकन, हम करिहैं महाराज।

आप नराधिप श्रम इतो, करत व्यर्थ किहिं काज॥

कहिय चरन प्रति मरुपती, तुम जानत नहिं लेश।

कउ दिन दुरगा देश पै, छाया करहिं विशेश॥

तातें अपने हाथ सों, छांह करन के मांहि।

अपनो गौरव गिनत हौं, यामें लघुता नांहि॥

समय पाय सांचो भयो, जसवँत को अनुमान।

छाया करिहै देश पै, दुरगादास निदान॥

स्रोत
  • पोथी : दुर्गादास चरित्र ,
  • सिरजक : केसरी सिंह बारहठ ,
  • संपादक : जसवंत सिंह ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय