शरणागत नै सूंप दै, दुसमण रै दरबार।
नाविक पटकै नीर में, तौ कुण तारणहार॥1॥
दळबदळ् री दोस्ती, नशैबाज रौ नूर।
कूड़ी सौगन काढ़लै (तौ) कदर हुवै काफूर॥2॥
करड़ी हांडी काठ री, अगन चढ़ै इकबार।
पैठ हीण कूड़ौ पुरुष, पावै नीं पतियार॥3॥
बिगड़ण रै मारग बहै, सुधरण रौ नह सूत।
सपूत रौ अंजस सदा, कुळ रौ कळंक कपूत॥4॥
अखज मांय नीयत अड़ी, चाटण टेरा चाट।
जतन करै नह जुगत रौ, वहै पतन री वाट॥5॥
गरीब गुडै नै करै, मजबूरी में माफ।
दगाबाज सेवट दुखी, औ कुदरत इन्साफ॥6॥
डसणौ वीछू डंक रौ, कसमसणौ तन कोय।
वसणौ बिच में वैरियां, हसणौ किण विध होय॥7॥
केई नर उन्नति करै, पुरुषारथ रै पांण।
नाजोगां दारु नसौ, लोक हसौ घर हांण॥8॥
नदी कहै रे नाडिया, कैद हुवां जळ कीच।
फिरतौ धिरतौ फूठरौ, बसै हसै दधि बीच॥9॥
राजतंत्र जनतंत्र री, जड़ां समेत जमेत।
रे सगळा मिळ राखज्यो, हियै रेत रौ हेत॥10॥
माईता सूं रै विमुख, भायां सूं दुरभाव।
अधबिच में डूबै अवस, निरमागी री नाव॥11॥