आया मृग मार सेसनूं आखै, बंधव ! सुणो सबीता।
दारूण कुटी विडंगी दीसै, सही गमाई सीता।
रे मन मीता रे मन मीता किण विध कीजिये॥
मृगीया रमै आवता मारग, देखत ऊभी दोटै।
आज कुलंग भ्रमण तिण ऊपर, लाग जिनावर लोटे।
रे रंग खोटे रे रंग खोटे, किण विध कीजिये॥
वनवासो चवदै वरसा रो, वामां संग बिलावै।
बीते पल ही कलप बराबर, जिके दिवस किमि जावै।
रे सुध आवै, रे सुध आवै, किण विध कीजिये॥
कानन रहो रहो गिरि कंदर, चवै खलक गृह चारी।
घर-घर जो डोलै विण घरणी, भाखै नगर भिखारी।
रे व्रतधारी रे व्रतधारी, किण विध कीजिये॥
जाणे हर घट-घट री जो पिण, सोजे आश्रम सारा।
पूछै पाहण रूंख पंखेरू ध्रुवे चखां जलधारा।
रे जण म्हारा रे जण म्हारा, किण विध कीजिये॥