माटी रौ ठांम जोत तिण मांहै,

घण तिय फेरै घरै-घरै।

घुड़लौ कितीक वार घूमसी,

फोड़णहारा लार फरै॥

गौरी मिळै गीत सह गावै,

जतन रखावै जुवा-जुवा।

फेरुं हवै किता घर फिरसी,

हेरूं लोचपलोच हुआ॥

अत जतने माथै ऊपाड़ै,

रंभा दोळी थकी रहै।

आस किसूं राखीजै ईं री,

वैरी छोरा लार वहै॥

रतन तणी विध जतन राखतां,

खड़ग तणौ घा खमियौ।

पौहर तणौ हतौ प्रामणौ,

गावतड़ां इज गमियौ॥

मिटियौ तेल जोत मुरझांणी,

पड़ियौ कुंभ पियारौ।

अध खण मांहै हुवौ अचींतौ

उजवाळै अंधियारौ॥

घट घुड़ली जांण ओपला,

गोविंद काय गावै।

खळ जमरांण काढ़ियै खांडै,

आतुर कीधां आवै॥

मोटौ प्रसण डांग लै मोटी,

काळ घणां नर कूटै।

काचौ कुंभ मिनख री काया,

फिरतां घिरता फूटै॥

घुड़ला (शरीर) निरा मिट्टी का बना कच्चा घट है। घुड़ले में स्थापित दीपक का आलोक इस में रखे गये छिद्रों के माध्यम से बाहर आता दिखाई देता है, जैसे कि मानव-देह की इंद्रियों से चैतन्य का स्पन्दन। इस ‘घुड़लै’ को अपने मस्तक पर रख कर गीत गाती हुई महिलायें घर-घर के सामने नृत्य करती हैं। परन्तु यह घुड़ला अब और कितने दिन तक इस प्रकार घूमता रहेगा, क्योंकि इसे फोड़ने वाले (यमदूत) निरंतर इस का पीछा करते रहे हैं।1

बहुत-सी महिलाएँ एकत्रित होकर इस घट की सुरक्षा के लिए गीत गाती हैं और नाना प्रकार के यत्न करती हैं। लेकिन घुड़ले को लेकर वे और कितने दिन तक इस तरह घूमती रहेंगी? ‘घुड़लै’ को तलाश करने वालों ने इसे चारों ओर से घेर लिया है और उस से लत्थोबत्थ हो गये हैं।2

बड़ी सावधानी और यत्न के साथ महिलाएँ घुड़ले को अपने सर पर धारण करती हैं। उन में सबसे ज्यादा सजी-धजी महिला (रम्भा) इस की सुरक्षा के लिए पूरी तरह से सतर्क और तत्पर रहती है। परन्तु इस ‘घुड़लै’ की सुरक्षा की आशा कब तक रखी जाय जब कि शत्रु छोकरे (यमदूत) निरन्तर इस की तलाश करते हुए पीछे-पीछे रहे हैं।3

यह निश्चय है कि मानव देह स्वरूपी यह रत्न अनेक प्रयत्नों के उपरांत भी एक दिन हाथ से बिछुड़ने वाला है। इस पर यमराज की तलवार का घाव लग चुका है। यह ‘घुड़ला’ (शरीर) भी मात्र दो प्रहर का मेहमान है और गीतों ही गीतों में जाने कब अंतर्धान होने वाला है।4

जैसे ही ‘घुड़लै’ (शरीर) में रखे दीपक में तेल (चैतन्य) समाप्त हुआ कि वह प्राण-शून्य हो गया। क्षणार्द्ध में ही ऐसी दुःखान्तिका घट गई, जिस की कभी आशंका भी नहीं की थी। थोड़ी देर पहले जहाँ चैतन्य का प्रकाश था, वहाँ हाहाकार करता मृत्यु का अंधकार छा गया।5

ओपा आढ़ा कहता है- प्रियजनो, इस कच्चे ‘घुड़लै’ के समान ही क्षण-भंगुर और नाशवान इस मानव देह को समझ कर तुम-मग्न होकर भगवान गोविन्द की भक्ति के गीत क्यों नहीं गाते? स्मरण रहे, वह दुष्ट यमराज नंगी तलवार लिये बड़ी तेज़ गति से तुम्हारे पीछे भागता रहा है।6

मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु काल अपने अमोघ दण्ड से जाने कितने प्राणियों को मौत के घाट उतार चुका है। मनुष्य की यह काया मिट्टी से बने ‘घुड़लै’ के समान बिल्कुल कच्ची और नाशवान है। यह चलते फिरते ही किसी क्षण अनायास टूट कर नाश होने वाली है।7

स्रोत
  • पोथी : ओपा आढ़ा काव्य सञ्चयन ,
  • सिरजक : ओपा आढ़ा ,
  • संपादक : फतह सिंह मानव ,
  • प्रकाशक : सहित्य अकादेमी- पैली खेप
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