पहलां आंगळी गह गाबड़ पकड़ै,

थारा भलम तणौ की थाग।

काळा तो सूं नेह करंतां,

नूतरियौ कोय काळौ नाग॥

तिण दिन तोसूं सुतन तिजारा,

कौडै भैळप कीधौ।

वांमै हाथ करंड रै वासी,

दरसण काय दीधौ॥

लेता महौर तद उंरस लागतौ,

लोचन बिन्है हुवंता लाल।

रूप रुधर सोखै सब रहियौ,

मांस बिनां घट ताजौ माल॥

बैरीपणौ ज्यूंही बिछड़तां,

अमल तुहारौ औगण अेह।

लाधी मार पछै सुख लाधौ,

नरम हुऔ जद बाऔ नेह॥

हे अमल, तुम्हारी महिमा का कोई पार है भला? तुम्हारा यह सहज स्वभाव है कि प्रथम आकर्षण में अंगुली मात्र पकड़ते हो, लेकिन थोड़े ही समय में उसकी गर्दन पकड़ कर उस पर पूर्णतया अपना अधिकार जमा लेते हो। तुम्हारे वशीभूत हुए आदमी की दयनीय दशा देखकर लगता है, किसी ने तुम्हारे साथ प्रेम क्या किया, मानो साक्षात् मृत्यु स्वरूप काले विषधर सर्प को ही निमंत्रित कर लिया हो॥1॥

हे तिजारे के वत्स, मैंने बड़ी उमंग के साथ तुम्हारा नशा लेने रूपी मैत्री प्रारम्भ की थी, परन्तु अब घोर पश्चाताप होता है। हा, उसी क्षण मेरे बाँये हाथ को बाँस की पिटारी में रहने वाले काले सर्प ने आकर क्यों नहीं डस लिया?॥2॥

सर्प प्रथम जब तुम्हारा नशा करना प्रारम्भ किया तो एक प्रकार का स्वर्गिक सुख अनुभव करता था। धमनियों में जोश भरकर दोनो आँखें सुर्ख हो जाती थीं। लोकिन अब नशे की लत पड़ जाने के बाद तो मेरे शरीर की ऐसी दुर्दशा हो गयी है कि सारा रक्त ही सूख गया और देह का सौंदर्य काफूर हो गया। हृष्ट-पुष्ट काया का मांस सूख कर कंकाल मात्र रह गया है॥3॥

अंत में जब तुम्हारे स्नेह-बंधन को तोड़ा तो उस समय तुमने शत्रुवत् व्यवहार किया। यही तुम्हारा सबसे बड़ा दोष है। नशा छोड़ते ही पहले शारीरिक और मानसिक दोनो प्रकार की असह्य पीड़ा हुई। पर जब तुम्हारा प्रेम-पाश कुछ शिथिल हुआ तो धीरे-धीरे पुनः स्वास्थ्य लाभ कर कुछ प्राप्त हुआ॥4॥

स्रोत
  • पोथी : ओपा आढ़ा काव्य सञ्चयन ,
  • सिरजक : ओपा आढ़ा ,
  • संपादक : फतह सिंह मानव ,
  • प्रकाशक : सहित्य अकादेमी- पैली खेप
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