मन जांणै चढूं हाथियां माथै,

खुर घासंता जनम खुवै।

नर री चींती बात हुवै नहं,

हर री चींती बात हुवै॥

मन जांणै पहरूं महमूंदी,

फाटा धाबळ लियां फरै।

किण विध हुवै मनख रौ कीधौ

करै जकौ करतार करै॥

मन जांणै पीऊं पय मिसरी,

छाछ सुवरणी मिळै छांट।

वळिया सौ पाछा कुण वाळै,

उण घर री लेखण रा आंट॥

मन जांणै पदमण मांणू,

गोविंद बांध्यौ पथर गळै।

मांडणहारै लेख मांडिया,

मेटणहारौ कंवण मळै॥

दिल में जांणै पग दबवाऊं

और तणा पग दाबै आप।

कळपै किसूं किसी विध कांपै

प्राणी लेख तणौ परताप॥

चित में जांणै हुकम चलाऊं,

हुकम तणै वस नार होय।

साहब अंक लिख्या जै साचा,

काचा करण दीसै कोय॥

धारै मन वासौ धोळाहर,

तापै सूंना ढूंढ तठै।

मोटां रा आखर कुण मेटै,

कुटी लिखी सो महल कठै॥

भिड़तां जाणै भूल भाजूं,

भाजै अवस पड़ंतां भार।

समहर हुवै किणी विध सूरौ,

कायर जौ लिखियौ करतार॥

उर जांणै पकवांन अरोगूं,

धाप’र मिळै लूखौ धांन।

आदम कीं वध करै ओपला

भोळा जे लिखिया भगवान॥

मनुष्य मन में कल्पना करता है- मैं शानो-शौकत से हाथियों पर बैठ कर विहार करूँ, परन्तु होता है इससे सर्वथा विपरीत। उसे पाँव घसीटते-घसीटते ही जीवन-यात्रा तय करनी पड़ती है। सत्य है, मनुष्य की सोची हुई कोई भी बात पूरी नहीं होती, लेकिन भगवान की विचारी हुई तत्काल हो जाती है॥1॥

मन में आशा उठती है- मैं भी बेशकीमती मेहमूंदी (मुहम्दी) जैसे वस्त्र धारण कर ठाठ-बाट से रहा करूँ। लेकिन वास्तविकता ऐसी बनती है कि फटे हाल ही सारी ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है। भला, मनुष्य का सोचा-विचारा कब साकार हुआ है? सृष्टि के सच्चे कर्ता-धर्ता तो वे परमेश्वर हैं। यहाँ सब कुछ उन्हीं का किया हुआ होता है॥2॥

मन करता है- मुझे भी पीने के लिए मिश्री घुला हुआ मीठा दूध मिला करे। परन्तु बूँद भर गाढ़े रंग की छाछ भी नहीं मिलती। उस विश्व-नियामक ने भाग्य में जो अंक लिख दिये, उन अक्षरों की बनावट को मिटा सके इतना सामर्थ्य किसमें है?॥3॥

मन मधुर-मधुर स्वप्न सँजोता है- मुझे भी पद्मिनी जैसी गुणवती और सुन्दर पत्नी के सहवास का सुख मिले, परन्तु भगवान ने पल्ला बाँध दिया कर्कशा से। भाग्य निर्दिष्ट करने वाली उस अदृश्य शक्ति ने शुभ-अशुभ जो कुछ लिख दिया, उस अमोघ लेखनी के अंकों को मिटाने की शक्ति किसमें है?॥4॥

मन तरह-तरह के मंसूबे बाँधता है- सेवक-सेविकाएँ उसके पाँव दबाती हुई परिचर्या में बनी रहें। परन्तु इसके विपरीत जीवन-पर्यन्त वह स्वयं ही दूसरों का दास बनकर उन के पाँव दबाता रहता है। हे प्राणी, अब तू अपने मन को दुःखी करके किससे शिकवा-शिकायत कर रहा है? यह सभी कुछ तेरे ही प्रारब्ध का प्रतिफल है॥5॥

मन में हूक उठती है- दूसरे लोगों पर मेरी हुकूमत चले; सभी मेरी आज्ञा का अनुसरण करें, परन्तु जीवन में वस्तुस्थिति ऐसी आती है कि स्वयं की पत्नी भी उसके कहे में नहीं चलती। परमेश्वर ने जो भाग्यांक लिख दिया, बस केवल वही सत्य है। उसे झुठलाने की शक्ति किसी में नहीं॥6॥

मन आकांक्षा करता है- राज प्रासादों- जैसे बड़े बड़े महलों में निवास करूँ, परन्तु वे महल तो स्वप्न में भी कहीं नसीब नहीं होते और मनुष्य को सूने खंडहरों में सारा जीवन बसर करना पड़ता है। भला, उस सर्वशक्तिमान द्वारा लिखे गये अक्षरों को कौन मिटा सकता है? किसी के भाग्य में यदि कुटी ही लिखी है तो उसे महल कैसे नसीब होगा?॥7॥

मन संकल्प करता है- मैं युद्ध भूमि में कभी पीठ नहीं दिखाऊँगा, परन्तु शत्रु से सामना होते ही वह मैदान छोड़ कर तुरन्त भाग खड़ा होता है। भगवान ने जिसे प्रकृति से ही कायर बनाया, वह युद्ध में वीर के समान कैसे लड़ सकता है? जिसकी प्रकृति जैसी है, वह वैसी ही रहेगी॥8॥

मन में हाँस उठती है- मुझे भी भोजन में स्वादिष्ट व्यञ्जन और तरह-तरह के पकवान मिला करें। लेकिन पेट भर रूखी रोटी का भी संयोग नहीं सजता। ओपा आढ़ा कहता है- आदमी की औक़ात ही क्या है कि वह भगवान के लिखे हुए में कुछ भी घटत-बढ़त कर सके। यही मनुष्य की नियति है॥9॥

स्रोत
  • पोथी : ओपा आढ़ा काव्य सञ्चयन ,
  • सिरजक : ओपा आढ़ा ,
  • संपादक : फतह सिंह मानव ,
  • प्रकाशक : सहित्य अकादेमी- पैली खेप
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